Edited By Vatika,Updated: 04 Nov, 2018 10:47 AM
शिरोमणि अकाली दल की राजनीति में बड़ा भूचाल आ गया है। बरगाड़ी बेअदबी कांड के बाद पार्टी के भीतर चल रहे रोष स्वरूप टकसाली नेताओं के निशाने पर बादल परिवार है। खास तौर पर पार्टी प्रधान सुखबीर बादल व बिक्रम सिंह मजीठिया। इन दोनों के अक्खड़पन को मुख्य वजह...
जालंधर(रविंदर): शिरोमणि अकाली दल की राजनीति में बड़ा भूचाल आ गया है। बरगाड़ी बेअदबी कांड के बाद पार्टी के भीतर चल रहे रोष स्वरूप टकसाली नेताओं के निशाने पर बादल परिवार है। खास तौर पर पार्टी प्रधान सुखबीर बादल व बिक्रम सिंह मजीठिया। इन दोनों के अक्खड़पन को मुख्य वजह बताते हुए सुखदेव सिंह ढींडसा, रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा और अब सेवा सिंह सेखवां ने बगावत कर दी है।
इन सीनियर व टकसाली अकाली नेताओं ने पार्टी के अपने पदों से इस्तीफा दे दिया है, मगर सेवा सिंह सेखवां का इस्तीफा पार्टी के भीतर एक बवंडर ला गया। जैसे ही सेवा सिंह सेखवां ने पार्टी के पदों से इस्तीफा देकर सुखबीर व मजीठिया को निशाने पर लिया तो तुरंत प्रभाव से पार्टी प्रधान सुखबीर बादल ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। अकाली दल की राजनीति में चल रहे उठापटक के इस दौर में आने वाले दिनों में अब और गर्माहट देखने को मिलेगी, क्योंकि जिस तरह से सेखवां को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया है, उसका असर अकाली दल की भविष्य की राजनीति पर पड़ेगा।
सेखवां को इस तरह पार्टी से बाहर निकाले जाने से टकसाली अकाली नेता खुश नहीं हैं। उनका मानना है कि पार्टी में कोई संविधान नहीं रह गया है और सुखबीर बादल व बिक्रम मजीठिया अपनी मनमर्जी व घमंड से पार्टी को चला रहे हैं। सेखवां एपिसोड के बाद टकसाली नेता एकजुट होने लगे हैं और आने वाले दिनों में पार्टी के भीतर ही रह कर यह नेता सुखबीर व मजीठिया के खिलाफ अपना मोर्चा खोल सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो जो बगावत मौजूदा दौर में आम आदमी पार्टी के भीतर चल रही है, वही अकाली दल में भी देखने को मिल सकती है। इसका नुक्सान अकाली दल को न केवल आने वाले लोकसभा चुनावों में भुगतना पड़ेगा बल्कि अकाली दल की भविष्य की राजनीति को भी ग्रहण लग सकता है। टकसाली नेताओं के एक मंच पर आने से बादल परिवार पर दबाव भी बनेगा और सुखबीर व मजीठिया को पार्टी के भीतर बैकफुट पर भी आना पड़ सकता है।
‘आप’ के पाले में जा सकती है टकसाली अकाली नेताओं की गेंद
दूसरी तरफ सुखपाल सिंह खैहरा व कंवर संधू को पार्टी से बाहर निकाल कर आम आदमी पार्टी हाईकमान ने भी साफ संकेत दे दिया है कि वह पार्टी के भीतर चल रही लड़ाई को अब और लंबा खींचने के मूड में नहीं है। इन दोनों को पार्टी से बाहर करने से पहले हाईकमान ने दोनों गुटों में समझौता करवाने का प्रयास किया था, मगर खैहरा के विरोधी रुख ने केजरीवाल को यह फैसला लेने पर मजबूर कर दिया। एक तरफ जहां आम आदमी पार्टी अब बगावती नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा रही है तो दूसरी तरफ अंदरखाते टकसाली अकाली नेताओं पर भी डोरे डाले जा रहे हैं। कुछ टकसाली अकाली नेताओं की पिछले दिनों केजरीवाल से गुप्त मीटिंग भी हो चुकी है। कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर सुखबीर बादल ने प्रधान पद से इस्तीफा न दिया तो आने वाले दिनों में एक अलग मोर्चा बनाकर टकसाली अकाली पंजाब में आम आदमी पार्टी को सपोर्ट कर सकते हैं या फिर कुछ बड़े अकाली नेता ‘आप’ का दामन भी थाम सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो हाशिए पर जा रही आम आदमी पार्टी को प्रदेश में दोबारा आक्सीजन मिल जाएगी और अकाली दल के भीतर एक बड़ा बिखराव देखने को मिल सकता है।
10 साल की सत्ता में आवाज नहीं उठाई, अब कैसे याद आया 84 : कांग्रेस
कांग्रेस ने अकाली दल के जंतर-मंतर पर 1984 सिख दंगों पर न्याय न मिलने के विरोध में दिए धरने को पूरी तरह से नौटंकी बताया है। कांग्रेस का कहना है कि 10 साल तक प्रदेश में अकाली दल की सरकार रही, तब कभी अकाली दल को यह मुद्दा याद नहीं आया। केंद्र में अकाली दल की सहयोगी पार्टी भाजपा पिछले 5 साल से सत्ता में है, तब कभी गंभीरता से यह मुद्दा नहीं उठाया गया। अब पंजाब से जैसे ही अकाली दल के पांव उखड़े और लोकसभा चुनाव नजदीक आए तो अकाली दल को फिर वही 32 साल पुराना मुद्दा याद आ गया।