किसान आंदोलन: BJP की नाव डूबने की कगार पर, केंद्र की हठकर्मी का विरोध ले सकता है 'विराटरूप'

Edited By Tania pathak,Updated: 26 Dec, 2020 11:39 AM

kisan agitation bjp s boat on the verge of sinking

भाजपा के बगीचे में मौसमी चुनावी फूलों की बहार फीकी पडऩा लाजमी है।

अमृतसर (दीपक): उत्तर भारत के किसान संघर्ष करीब एक महीने से कड़ाके की हड्ड चिरती हुई सर्दी में तीनों काले कानून वापस करवाने की मांग पर केंद्र सरकार के साथ टक्कर ले रहे हैं, जबकि केंद्र सरकार अपना धूमिल भविष्य सामने देखते हुए भी उनकी इस मांग को मानने को पूरी तरह से तैयार नहीं है। यदि इस रस्सा कस्सी का गंभीरता रूप से होने वाले के कारण को पहचाना जाए तो भाजपा पर यह बात लागू होना तय है। (मुंह खाए और आंखें शर्माएं) यानि जो कर्जदार होता है, वह अपने कर्ज देने वाले आका के आगे झूकने को भी मजबूर होता है। 

यही कारण तो भाजपा की मजबूरी है कि टालमटोल की राजनीति, खुफिया तंत्र की सियासी चालें और किसानों को आपस में धड़े बंदी करके लड़ाने की साजिश सफलता को फूल अभी तक नहीं लगे हैं, इसलिए भाजपा के बगीचे में मौसमी चुनावी फूलों की बहार फीकी पडऩा लाजमी है। आखिरकार पत्रों का आदान प्रदान कब तक चलेगा। ‘यही तो है भविष्य का आईना...’  

यदि यह सोचा जाए कि किसान विरोधी तीनों काले कानूनों का नया आधार है? तो यह गलत होगा, क्योंकि कर्जा देने वाला शाहूकार कर्जा देने पर ब्याज तो लेता है, पर अपने क्या यह बढ़ते हुए लालच को कर्जा लेने वाले को सबक सिखाने की कोशिश भी जारी रखता है। उन्हें न देश की प्रवाह न राष्ट्रीयता की, उस शाहूकार का एक ही लक्ष्य है, दुनिया में अमीर बनने का, जिससे उसकी हवस रूपी होड़ कभी खत्म नहीं होती और लालच बढऩे से वह दुनिया के शाहूकारों की सूचि में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए अपने आर्थिक सलाहकारों से रणनीति बनवाकर कर्जदार राजनीतिज्ञों को अपने जाल में ऐसे फंसा लेता है। जैसे मक्कड़ी की जाल से कोई बाहर नहीं निकल पाता, उन्हें हर हालत में शाहूकार के हुक्म की पालना करनी पड़ती है। 

चाहे उसे देश को क्यों न बेचना पड़े। उसके संस्कार तो शाहूकार के प्रहार तले पहले ही मरे होते हैं, इसलिए यह उसकी मजबूरी है कि वह काले कानून वापस नहीं ले पाता, क्योंकि आगामी चुनावों के लिए भी साहूकारों की जरूरत पडऩा तो लाज़मी भी है। क्या यही हालत भाजपा की है? उसका उत्तर भाजपा ही दे सकती है कि वह शाहूकारों के एेहसानों तले दबे होने के कारण किसानों की एक ही अटल मांग को वह मंजूर नहीं कर पा रही। क्या यही भाजपा की मजबूरी है? यही कारण है कि इस मुद्दे पर सभी भाजपा नेताओं के मुंह पर दीवाला निकलने के डर का ताला लगा हुआ है। 

हैरानी की बात तो यह है कि किसान नेताओं और विपक्ष के उक्त आरोपों के जवाब में मजबूरी के कारण कर्जदार डर के मारे अपने साहूकारों का नाम भी लेने को तैयार नहीं है, क्योंकि उनके मुंह पर भी कर्ज का ताला लगा हुआ है। इसकी चाबी तो है पर भाजपा उसे घुमाकर कर भी ताले को अब खोलना नहीं चाहती। यह भाजपा की मजबूरी भी हो सकती है?

कॉरपोरेट घरानों से नाता तोड़ किसानों को राहत दे केंद्र सरकार
किसानों के बढ़ते हुए प्रदर्शनों के तेजी से कदम जो सफलता को चूमने की आशाएं लगाए हुए हैं। उसको पूरा केंद्र सरकार करती है या नहीं अभी तक अनिश्चिता तो बनी हुई है। आंदोलन जन सम्पर्क को बढ़ाते हुए 24 देशों तक पहुंच चुका है। आखिर जब और देर हो गई तो उत्तर भारत या देश का व्यापारी, उद्योगपति भी अपने कारीगरों के साथ इस आंदोलन में शामिल होकर इस आग के शोलों को और जहरीला कर देगा। यदि इस आग के शोले देश के ग्रामीण और किसानों के युवा बेटों को अपनी चपेट में ले लेते हैं तो खून का रिश्ता निभाते हुए भारतीय सुरक्षा में चिंगारी फूटने में देरी नहीं लगेगी। किसानों के आंदोलन को दबाने के लिए यदि केंद्र सरकार इन फोर्सों का बलपूर्वक प्रयोग करती है तो इस फैसले का प्रभाव उल्टा पडऩे में देरी नहीं लगेगी। आखिरकार कौन सा बेटा अपने बाप और किसान भाई पर गोली चलाएगा। इसकी जानकारी न होना भाजपा का अहंकार में डूबने का प्रमुख कारण भी है। 

इसमें कोई शक नहीं है कि मौजूदा खेतीबाड़ी कानून और प्रबंधों में जल्दी सुधार करने की जरूरत है। इसके लिए केंद्र सरकार देश के किसान नेताओं के साथ संपर्क करके उसमें सुधार ला सकती है, क्योंकि प्राइवेट कॉरपोरेट घराने इस तरह से किसानों का शोषण करते है। इस के तहत इस प्राइवेट घरानों नीतियों और भाजपा के साथ के गुप्त गठबंधन पर किसानों और आम जनता को अब तक विश्वास नहीं है। जाहिर है केंद्र सरकार को इन कॉरपोरेट घरानों से नाता तोड़ कर किसानों को राहत देने से ही गंभीर समस्या का तुरंत समाधान निकल सकता है।  

ताजा हालातों से भाजपा की नाव डूबने के कगार पर 
यदि यह आंदोलन केंद्र सरकार की किसानों को समझाने, टालमटोल करने और शाहूकारों के डर से कोई भी फैसला न होने के परिणाम स्वरूप वैसे ही हालात बने थे, जब रावण ने अपने सभी परिजनों को मरवाने के बाद राम का नाम अंतिम समय पर लेकर अपने प्राण भगवान राम चंद्र के चरणों में त्यागे थे और तब तक लंका पूरी तरह राख हो चुकी थी। भाजपा को बदलते हालातों में जहरीलापन बढऩे से पहले इसे गंभीरता से सोचना होगा, क्योंकि भविष्य की सियासी चौपाट तो सभी विपक्षी पार्टी को आगे लाने में देरी नहीं करेंगी। किसानों का कुछ फैसला हो या न हो ताजा हालातों से भाजपा की नाव डूबने के कगार पर है, जिसे बचाना चाहें तो देश के गृहमंत्री, प्रधानमंत्री की जोड़ी जब चाहे सुलझ सकती है। तीनों काले कानून वापस लेकर, पर अब देखना होगा कि ‘ऊंट किस करवट बैठता है’। एक तरफ खाई है दूसरी तरफ कुंआ बीच का रास्ता यदि टालमटोल की साजिश से कमजोर पड़ गया तो देश में बर्बादी का आलम तय है, इसलिए हमें भविष्य के लिए सतर्क रहना होगा, क्योंकि भारत के पड़ोसी देशों में जो नफरत की आग पूरी तरह जंगल की आग में तबदील हो चुकी है, वह आग अब बुझने वाली नहीं, कही देर न हो जाएं। 

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