वाजपेयी को बिना शर्त समर्थन से बना गठबंधन कृषि बिल पर टूटा, अब सड़क से एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोकेंगे

Edited By Pardeep,Updated: 27 Sep, 2020 12:51 AM

vajpayee s coalition broken without unconditional support for agriculture bill

शनिवार को अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर बादल द्वारा भाजपा के साथ तोड़े गए सियासी संबंधों की शुरुआत 1996 के लोक सभा चुनाव के बाद हुई थी। भाजपा उस समय सबसे बड़ी पार्टी थी और सत्ता की दावेदारी में उसे अकाली दल ने बिना शर्त समर्थन की घोषणा की थी। हालाँकि

जालंधर(नरेश) ः शनिवार को अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर बादल द्वारा भाजपा के साथ तोड़े गए सियासी संबंधों की शुरुआत 1996 के लोक सभा चुनाव के बाद हुई थी। भाजपा उस समय सबसे बड़ी पार्टी थी और सत्ता की दावेदारी में उसे अकाली दल ने बिना शर्त समर्थन की घोषणा की थी।

हालांकि उस समय राजनीतिक जानकारों को यह देख कर हैरानी हुई कि दो विपरीत विचारधाराओं वाली पार्टिया एक मंच पर कैसे आ सकती हैं लेकिन सियासत के बाबा बोहड़ प्रकाश सिंह बादल के दिमाग में उस वक़्त कुछ और ही चल रहा था। अकाली दल के इस बिना शर्त समर्थन का नतीजा अकाली भाजपा गठजोड़ के रूप में सामने आया और 1997 के चुनाव में दोनों ने राज्य की 117 विधान सभा सीटों में से 93 सीटें जीत कर तहलका मचा दिया। अकाली दल 75 और भाजपा 18 सीटों पर चुनाव जीती और पंजाब की सत्ता पर काबिज रहने वाली कांग्रेस उस समय 14 सीटों पर सिमट गई थी। 

यह सिलसिला 1998 में भी जारी रहा और जब दोनों पार्टियों ने पहले बार गठबंधन में लोक सभा का चुनाव लड़ा तो दोनों दलों ने लोक सभा की 11 सीटें जीत ली कांग्रेस का इस चुनाव में भी सूपड़ा साफ़ हो गया। इस दौरान जालंधर की सीट इंद्र कुमार गुजराल जनता दल की टिकट पर जीते क्योंकि यहाँ उनके समर्थन में अकाली दल ने उम्मीदवार नहीं दिया था जबकि फिल्लौर की सीट बतौर आजाद उम्मीदवार सतनाम सिंह कैंथ जीते थे। अब दोनों पार्टियों का गठबंधन टूटने पर राज्य में सारे समीकरण बदल जाएंगे और एक वक़्त साथ रहे दोनों दल अब एक दूसरे के खिलाफ सड़क से लेकर संसद तक ताल ठोकते नजर आएंगे। 

15 साल सत्ता में रहे,1998 और 2004 की लोकसभा में जबरदस्त जीत हासिल की
1997 में हुए गठबंधन के बाद दोनों पार्टियों ने 2002,2007, 2012 और 2017 के विधान सभा चुनाव एक साथ लड़े इनमे से 1997, 2007 और 2012 के चुनाव में गठबंधन की जीत हुई जबकि 2002 और 2017 के चुनाव में गठबंधन को हार का मुंह देखना पड़ा।  दोनों बार कांग्रेस कैप्टन अमरेंद्र सिंह की अगवाई में ही चुनाव जीती है। इसी गठबंधन ने पंजाब में एक पार्टी द्वारा लगातार दो बार सरकार बनाने का भी रिकार्ड बनाया और लगातार 2007 और 2012 के चुनाव जीते। 

इसी प्रकार लोकसभा चुनाव के दौरान भी इस गठबंधन ने 1998 और 2004  के चुनाव में 11 सीटें जीतने का रिकार्ड बनाया है।1998 के लोक सभा चुनाव में केंद्र में अटल बिहारी वाजपई के पक्ष में चली लहर के बीच इस गठबंधन ने 11 सीटें जीती जबकि अगले ही साल 1999 के चुनाव में कांग्रेस ने जबरदस्त वापसी करते हुए 13 में से 8 सीटें जीत ली और अकाली दल 3 और भाजपा एक सीट पर ही चुनाव जीत पाई जबकि संगरूर सीट अपर सिमरनजीत सिंह मान चुनाव जीत गए।  2004 के अगले लोक सभा चुनाव में एक बार फिर गठबंधन ने 11 सीटें जीती।  अकाली दल 8 और भाजपा 3 सीटों पर विजई रही , 2009 के चुनाव में कांग्रेस ने 8 सीटें जीती जबकि गठबंधन 5 सीटें जीत पाया। 2014 में गठबंधन ने 6 सीटें जीती जबकि कांग्रेस ने 3 और आम आदमी पार्टी ने 4 सीटें जीती। 2019 के चुनाव के दौरान कांग्रेस ने 8 , गठबंधन ने 4 और आम आदमी  पार्टी ने एक सीट जीती। 

गठबंधन का लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन

साल
1998 -अकाली दल -8 - भाजपा -3  
1999 -अकाली दल -3 भाजपा -2  
2004 -अकाली दल -8 - भाजपा -3  
2009 -अकाली दल -4 -भाजपा 1
2014 -अकाली दल 4  भाजपा -2
2019 -भाजपा- 2 अकाली दल -2

गठबंधन का विधान सभा चुनाव में प्रदर्शन

साल
1997  अकाली दल -75 - भाजपा -18
2002  अकाली दल -41 -भाजपा -3
2007 -अकाली दल -48 - भाजपा -19
2012 अकाली दल -56 - भाजपा -12
2017 -अकाली दल -15 - भाजपा -3 

अब आगे क्या होगा 

1997 की विधान सभा चुनाव से पहले भी भाजपा राज्य में अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ती रही है। पार्टी ने अपने गठन के बाद पंजाब में पहला चुनाव 1985 में लड़ा था लेकिन उस समय भाजपा सिर्फ 26 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और उसे 6 सीटों पर जीत हासिल हुई थी।  पार्टी का वोट शेयर उस समय 4.99 फीसदी रहा था जबकि अगले ही चुनाव में 1992 में पार्टी ने 66 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस की आंधी चल रही थी और भाजपा 66 में से भी सिर्फ 6 ही सीटें जीत पाई हालाँकि इस चुनाव में उसका वोट शेयर बढ़ कर 16.48 फीसदी हो गया।

चूंकि भाजपा अकाली दल के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ती है और उसके उम्मीदवार सिर्फ 23 सीटों पर ही खड़े होते हैं तो लिहाजा उसका वोट शेयर विधान सभा चुनाव के दौरान 5 से लेकर 8.50 फीसदी तक रहता है लेकिन लोक सभा चुनाव में कई बार यह 10 फीसदी तक चला जाता है। मतलब साफ है भाजपा यदि 1992 में लड़ी अपनी पुराणी 66 हिन्दू प्रभाव वाली सीटों पर भी चुनाव में उतरेगी तो वह करीब 20 फीसदी वोट तक हासिल कर सकती है। 2011 की जन गणना के मुताबिक पंजाब की हिन्दू आबादी 39 फीसदी है और भाजपा यदि इस वोट बैंक को ही अपने साथ लाने में कामयाब हो गई तो अगले चुनाव के समीकरण चौंकाने वाले हो सकते हैं

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