'आप’ की जीत से ज्यादा लोगों को है इस उम्मीदवार के हारने की खुशी, जानें क्यों

Edited By Kalash,Updated: 12 Mar, 2022 04:26 PM

more people are happy to lose this candidate than the victory of aap

पिछले एक साल से जहां सभी बड़ी पार्टियां चुनाव की तैयारियों में लगी हुई थी, वहीं सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस ने भी वोटरों को लुभाने के लिए कई हत्थकंडे

बठिंडा (वर्मा): पिछले एक साल से जहां सभी बड़ी पार्टियां चुनाव की तैयारियों में लगी हुई थी, वहीं सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस ने भी वोटरों को लुभाने के लिए कई हत्थकंडे अपनाए पर सरकारी कर्मचारियों को नजरअंदाज करना उन्हें भारी पड़ा। इसके साथ ही अकाली दल, भाजपा सहित अन्य पार्टियों की कारगुजारी भी पूरी तरह फ्लॉप रही। आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो केजरीवाल ने करीब 6 महीने पहले चुनाव प्रचार शुरू किया और सत्ता हासिल की। बठिंडा में वित्त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल की हार का सबसे बड़ा कारण पिछले चार सालों से सड़कों पर बैठ कर धरने कर रहे सरकार और बेरोजगारों के बीच पैदा हुए टकराव को बरदाश्त करना था। यही कारण है कि विधानसभा चुनाव के दौरान बड़ी संख्या में कर्मचारियों, बेरोजगारों और किसानों ने बठिंडा में प्रदर्शन कर मनप्रीत बादल को वोट न देने की अपील की थी। हिंदु जत्थेबंदियां मनप्रीत बादल को हिंदु विरोधी मानती थी, जिस कारण उन्होंने मनप्रीत बादल की ऐतिहासिक हार के बाद बठिंडा में लड्डू बांटे, पटाखे चलाए और खुशी का इजहार किया। यदि देखा जाए तो आम आदमी पार्टी के जगरूप सिंह गिल को जीत की उतनी खुशी नहीं थी, जितनी मनप्रीत बादल की हार हुई थी। बठिंडा के 90 हजार से अधिक लोगों ने आम आदमी पार्टी की हिमायत की, जबकि कांग्रेस के वित्त मंत्री को सिर्फ 24 हजार लोगों ने ही वोटों डाली।

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कर्मचारियों का रोष उस समय सामने आया जब 10406 बैलेट पेपरों में से 6271 सरकारी कर्मचारियों ने ‘आप’ उम्मीदवार को वोट दी। इस बात का खुलासा वोटों की गिनती के दौरान हुआ। अकाली दल को सिर्फ 1951 बैलेट पेपर वोटें मिली, जबकि कांग्रेस को 1291 वोटें मिली। सरकारी कर्मचारियों की तरफ से कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार को नापसंद करने का सबसे बड़ा कारण मनप्रीत बादल था। पिछले चार सालों से बेरोजगार और सरकारी कर्मचारी अपनी, मांगों को लेकर सरकार के खिलाफ धरने देते रहे और उनका गढ़ बठिंडा रहा। किसान जत्थेबंदियों ने वित्त मंत्री के खिलाफ काफी प्रदर्शन भी किए, जिसका प्रभाव 10 मार्च को देखने को मिला।

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20 साल की सजा काट रहे डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम को देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने चुनाव हितों के लिए 21 दिनों की पैरोल दी थी, जिससे उसका फायदा चुनाव में लिया जा सके। 9 फरवरी को डेरा सिरसा के राजनीतिक विंग की अहम मीटिंग 3 बजे से शाम 5 बजे तक हुई, जिसमें 4 सीटों पर फैसले लिए गए, जिनमें बठिंडा से अकाली दल के उम्मीदवार स्वरूप चंद सिंगला, सुखबीर सिंह बादल, सिकंदर सिंह मलूका शामिल थे। रामपुरा और तलवंडी साबो में हरमंदर सिंह जस्सी की हिमायत का ऐलान किया गया। रातों-रात यह खेल उल्ट -पुल्ट होती दिखाई दी पर 10 मार्च को आए नतीजों ने साफ कर दिया कि डेरा सच्चा सौदा का जादू बुरी तरह फेल हो गया है।

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डेरा प्रेमियों ने डेरे के राजनीतिक विंग की एक न सुनी और अपनी, वोटें इधर -उधर दी। बठिंडा में डेरे की 24600 वोटों थे, जबकि स्वरूप चंद सिंगला को सिर्फ 24183 वोटों मिली थीं, जबकि अकाली दल के वर्कर इससे अधिक हैं। तलवंडी में हरमंदर सिंह जस्सी को 12623 वोटों मिली, जहाँ डेरा समर्थकों की संख्या 30 हजार से अधिक है। रामपुरा फूल से अकाली दल के उम्मीदवार सिकंदर सिंह मलूका को 45386 वोटों मिलीं हैं, जबकि वहां डेरा समर्थकों की संख्या 35 हजार से अधिक है और अकाली दल के वर्करों की संख्या भी इतनी ही है। अब सवाल यह है कि डेरे का जादू नहीं चला या नेता मोहित हो गए। लोगों में आम चर्चा है कि डेरा फैक्टर ने कोई प्रभाव नहीं दिखाया, जिस कारण यह उम्मीदवारों की बुरी दशा के लिए जिम्मेदार है।

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