अलविदा फ्लाइंग सिख : मिल्खा सिंह के जीवन की वो बातें जो आप नहीं जानतें होंगे...

Edited By Vatika,Updated: 19 Jun, 2021 03:09 PM

goodbye flying sikh things you didn t know about milkha singh s life

मिल्खा सिंह के लिये ट्रैक एक खुली किताब की तरह था जिससे उनकी जिंदगी को ‘ मकसद और मा

नई दिल्ली: मिल्खा सिंह के लिए ट्रैक एक खुली किताब की तरह था जिससे उनकी जिंदगी को ‘ मकसद और मायने ‘ मिले और संघर्षो के आगे घुटने टेकने की बजाय उन्होंने इसकी नींव पर उपलब्धियों की ऐसी अमर गाथा लिखी जिसने उन्हें भारतीय खेलों के इतिहास का युगपुरूष बना दिया। अपने कैरियर की सबसे बड़ी रेस में भले ही वह हार गए लेकिन भारतीय ट्रैक और फील्ड के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करा लिया । आइए, एक नजर डालते है मिल्खा सिख की वो बातों पर जिन्हें नहीं जानते होंगे आपः-

  • रोम ओलंपिक 1960 को शायद ही कोई भारतीय खेलप्रेमी भूल सकता है जब वह 0 . 1 सेकंड के अंतर से चौथे स्थान पर रहे । मिल्खा ने इससे पहले 1958 ब्रिटिश और राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर भारत को विश्व एथलेटिक्स के मानचित्र पर पहचान दिलाई । मिल्खा का कोरोना संक्रमण से एक महीने तक जूझने के बाद चंढीगढ में कल देर रात निधन हो गया । 91 वर्ष के मिल्खा ने जीवन में इतनी विकट लड़ाइयां जीती थी कि शायद ही कोई और टिक पाता । उन्होंने अस्पताल में भर्ती होने से पहले मीडिया से आखिरी बातचीत में कहा था ,‘‘ चिंता मत करो । मैं ठीक हूं । मैं हैरान हूं कि कोरोना कैसे हो गया । उम्मीद है कि जल्दी अच्छा हो जाऊंगा ।'

 

  • ​​​​​​​स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े खिलाड़ियों में से एक मिल्खा को जिंदगी ने काफी जख्म दिए लेकिन उन्होंने अपने खेल के रास्ते में उन्हें रोड़ा नहीं बनने दिया । विभाजन के दौरान उनके माता पिता की हत्या हो गई । वह दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में छोटे मोटे अपराध करके गुजारा करते थे और जेल भी गये । इसके अलावा सेना में दाखिल होने के तीन प्रयास नाकाम रहे । यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि इस पृष्ठभूमि से निकलकर कोई ‘फ्लाइंग सिख' बन सकता है । उन्होंने हालात को अपने पर हावी नहीं होने दिया । उनके लिये ट्रैक एक मंदिर के उस आसन की तरह था जिस पर देवता विराजमान होते हैं । दौड़ना उनके लिये ईश्वर और प्रेम दोनों था । उनके जीवन की कहानी भयावह भी हो सकती थी लेकिन अपने खेल के दम पर उन्होंने इसे परीकथा में बदल दिया ।

 

  • पदकों की बात करें तो उन्होंने एशियाई खेलों में चार स्वर्ण और 1958 राष्ट्रमंडल खेलों में भी पीला तमगा जीता । इसके बावजूद उनके कैरियर की सबसे बड़ी उपलब्धि वह दौड़ थी जिसे वह हार गए । रोम ओलंपिक 1960 के 400 मीटर फाइनल में वह चौथे स्थान पर रहे । उनकी टाइमिंग 38 साल तक राष्ट्रीय रिकॉर्ड रही

 

  • ​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​मिल्खा सिंह को1959 में पद्मश्री से नवाजा गया था । वह राष्ट्रमंडल खेलों में व्यक्तिगत स्पर्धा का पदक जीतने वाले पहले भारतीय थे । उनके अनुरोध पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उस दिन राष्ट्रीय अवकाश की घोषणा की थी । मिल्खा ने अपने कैरियर में 80 में से 77 रेस जीती । रोम ओलंपिक में चूकने का मलाल उन्हें ताउम्र रहा।

 

  • ​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​अपने जीवन पर बनी फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग' के साथ अपनी आत्मकथा के विमोचन के मौके पर उन्होंने कहा था ,‘‘ एक पदक के लिये मैं पूरे कैरियर में तरसता रहा और एक मामूली सी गलती से वह मेरे हाथ से निकल गया ।'' उनका एक और सपना अभी तक अधूरा है कि कोई भारतीय ट्रैक और फील्ड में ओलंपिक पदक जीते । अविभाजित पंजाब के गोविंदपुरा के गांव से बेहतर जिंदगी के लिये 15 वर्ष की उम्र में मिल्खा को भागना पड़ा जब उनके माता पिता की विभाजन के दौरान हत्या हो गई।
  • ​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​मिल्खा सिंह ने पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर जूते पॉलिश किये और ट्रेनों से सामान चुराकर गुजर बसर किया । वह जेल भी गए और उनकी बहन ईश्वर ने अपने गहने बेचकर उन्हें छुड़ाया । मिल्खा को चौथे प्रयास में सेना में भर्ती होने का मौका मिला । सिकंदराबाद में पहली नियुक्ति के साथ वह पहली दौड़ में उतरे । उन्हें शीर्ष दस में आने पर कोच गुरदेव सिंह ने एक गिलास दूध ज्यादा देने का वादा किया था । वह छठे नंबर पर आये और बाद में 400 मीटर में खास ट्रेनिंग के लिये चुने गए ।इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास बन चुका है ।
  • ​​​​​​​​​​​​​​उनकी कहानी 1960 की भारत पाक खेल मीट की चर्चा के बिना अधूरी रहेगी । उन्होंने रोम ओलंपिक से पहले पाकिस्तान के अब्दुल खालिक को हराया था । पहले मिल्खा पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे जहां उनके माता पिता की हत्या हुई थी लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू के कहने पर वह गए । उन्होंने खालिक को हराया और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने उन्हें ‘उड़न सिख' की संज्ञा दी । यह हैरानी की बात है कि मिल्खा जैसे महान खिलाड़ी को 2001 में अर्जुन पुरस्कार दिया गया । उन्होंने इसे ठुकरा दिया था । मिल्खा की कहानी सिर्फ पदकों या उपलब्धियों की ही नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत में ट्रैक और फील्ड खेलों का पहला अध्याय लिखने की भी है जो आने वाली कई पीढियों को प्रेरित करती रहेगी । 

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