दीवाली भी मनाइए और पर्यावरण भी बचाइए

Edited By Sunita sarangal,Updated: 23 Oct, 2021 05:20 PM

celebrate diwali and save environment too

दीवाली का त्यौहार आते ही हर साल अपने देश में पटाखों पर बहस छिड़ जाती है और दीवाली के बाद यह धुंआ हो जाती है। अगले साल तक दिवाली का पटाखों से क्या संबंध है, इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता।

जालंधर (संजीव शर्मा ): दीवाली का त्यौहार आते ही हर साल अपने देश में पटाखों पर बहस छिड़ जाती है और दीवाली के बाद यह धुंआ हो जाती है। अगले साल तक दिवाली का पटाखों से क्या संबंध है, इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता। वास्तव में पटाखों का इतिहास जानना उतना आसान नहीं है, जितना पटाखों को जलाना। लेकिन जब भी दीवाली आती है, तब पटाखों पर प्रतिबंध की बात जरूर मुखर हो जाती है। 

खासकर, 2015 की उस याचिका के बाद से जब सुप्रीम कोर्ट में 3 नवजात शिशुओं की तरफ से उनके परिजनों द्वारा पटाखों पर प्रतिबंध की मांग की गुहार लगाई गई थी। इन शिशुओं के नाम थे अर्जुन गोपाल, आरव भंडारी और जोया राव भसीन। ये अब 7 वर्ष के होंगे। हो सकता है, इनका मन भी इस दीवाली पर पटाखे चलाने को मचल रहा हो, लेकिन इनके परिजनों द्वारा इनके नाम पर डाली गई उसी याचिका पर इस सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला पिछले साल सुनाया था उस पर बहस आज भी जारी है। 


खैर कोर्ट ने दीवाली पर पटाखे प्रतिबंधित तो नहीं किए, लेकिन बाधित जरूर कर दिए हैं। अब पटाखे दीवाली (या ऐसे किसी दूसरे त्यौहार) पर रात 8 से 10 बजे के बीच ही जलाए जा सकेंगे। क्रिसमस और नए साल के मौकों पर यह समय एक घंटे का है जो रात के 11:45 से लेकर 12:45 तक होगा। हालांकि इस समय सारिणी में स्थानीय प्रशासन की समझ अनुसार परिवर्तन किया जा सकता है। कई शहरों में पटाखें पूर्णतया भी इस दीवाली बाधित होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने देश में ग्रीन पटाखे चलाए जाने की बात भी कही है। इस तरह से पटाखे तो प्रतिबंधित होने से बच गए, लेकिन बहस ज्यों की त्यों खड़ी है।
 
बहस इस बात की कि क्या दीवाली पर पटाखे छोड़ा जाना सही है या नहीं? जो लोग इसके विरोध में हैं, उनका यही सबसे बड़ा तर्क रहता है कि दीवाली का पटाखों से कोई संबंध नहीं है। दीवाली रोशनी से संबंध रखने वाला त्यौहार है जो कालांतर में आतिशबाजी और पटाखों से जुड़ गया। सिख धर्म में भी बंदी छोड़ दिवस को लेकर यह उल्लेख मिलता है, लेकिन उसमें भी यह प्रामाणिक नहीं है कि तब पटाखे ही चलाए गए होंगे, क्योंकि देश में आज हम जिसे पटाखे या आतिशबाजी कहते हैं, वे चीजें 1940 के बाद ही आईं। हां, यह जरूर हो सकता है कि ऐसे मौकों पर  बंदूकें या तोपें दागी गई हों, जिन्होंने कालान्तर में पटाखों का स्थान ले लिया हो। अगर ऐसा है तो फिर यह जश्न तो पहले से ही स्वसीमित है, बन्दूक/तोप से पटाखे पर आ गया। लेकिन चलिए इस बहाने पटाखों के इतिहास पर ही नजर डाल लेते हैं।

कितना पुराना है पटाखों का इतिहास? 
विभिन्न उपलब्ध लेखों का अध्ययन करने के बाद हमने यह पाया है कि भारत में पटाखों का आगमन मुगल काल से माना जाता है। हालांकि, यह भी पूर्ण रूप से स्थापित तथ्य नहीं है। उससे पहले कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी ऐसे किसी चूर्ण का उल्लेख है जिसे आप बारूद कह सकते हैं। ऐसे में इसे सही माना जा सकता है कि पटाखों का आविष्कार बारूद के प्रयोगों की परिणति है। वैसे, आपको बता दें कि दुनिया में बारूद 1270 में (या उससे पहले ढूंढा जा चुका था) सीरिया के रसायनशास्त्री हसन अल रम्माह ने 1270  में अपनी किताब में इसका उल्लेख किया था। खैर भारत में जब 1526 में काबुल के तैमूरी शासक जहीर उद्दीन मोहम्मद बाबर की सेना ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोधी की एक बहुत बड़ी सेना को युद्ध में परास्त किया, तब बारूद का रूप सामने आया था। यही वह पहली लड़ाई थी जिसमे अपने देश में आधिकारिक रूप से बारूद का प्रयोग पहली बार हुआ था। 

इतिहासकार लिखते हैं कि जब 1526 में काबुल के सुल्तान बाबर ने दिल्ली के सुल्तान पर हमला किया तो उसकी बारूदी तोपों की आवाज सुनकर भारतीय सैनिकों के छक्के छूट गए। जबकि बाबर की तुलना में लोधी की सेना तीन गुणा ज्यादा थी। माना जाता है कि अगर उससे पहले भारत में मंदिरों और शहरों में त्यौहारों आदि पर पटाखे फोड़ने की परम्परा रही होती तो शायद लोधी के वीर सिपाही तेज आवाज़ से इतना न डरते। मुगल काल के दस्तावेजों में शामिल दारा शिकोह की शादी के एक उपलब्ध चित्र में भी लोग पटाखे जलाते दिखते हैं। लेकिन अयोध्या में राम आगमन पर कभी पटाखे चलाने जैसा उल्लेख नहीं मिला, वहां घी के दीए जलाने का ही विवरण मिलता है। दिलचस्प ढंग से राम के ससुराल यानी मिथिला /जनकपुरी, जो अब नेपाल में है, वहां वर्तमान में पटाखे जलाने पर प्रतिबंध है। खैर मुगलों के साथ जब यह चीज भारत आई तो सम्भवत: बाद में लोगों ने दीवाली और फिर कालांतर में शादी-ब्याह और खुशी जाहिर करने के अन्य आयोजनों पर पटाखे जलाने शुरू कर दिए होंगे। 

औरंगजेब ने भी लगाया था प्रतिबंध
पटाखों पर प्रतिबंध लगाने की जब भी बातें होती हैं तो इसे औरंगजेबी  प्रयास कहा जाता है। हमने इसकी वजह खोजने की कोशिश की तो दिलचस्प सच सामने आया।  उपलब्ध विवरण बताते हैं  कि 1667 में औरंगजेब ने दीवाली पर सार्वजनिक रूप से दीयों और पटाखों के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी थी। यानी तब तक यह सब भारतीयों की शान से जुड़ गई होगी। मुगलों के बाद अंग्रेजों ने एक्स्प्लोसिव एक्ट पारित किया। इसमें पटाखों के लिए इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल को बेचने और पटाखे बनाने पर पाबंदी लगा दी गई। बाद में जब 1940 में इस एक्ट में संशोधन हुआ तो उसी साल तमिलनाडु के शिवकाशी में पहली आधिकारिक पटाखा फैक्टरी की शुरुआत हुई। इसे नादर ब्रदर्स के नाम से शुरू किया गया था। उसके बाद इस उद्योग ने आतिशबाजी की तरह विस्तार लिया और अब जब से बाल मजदूरी और पर्यावरण को लकेर ऊंच-नीच शुरू हुई है, यह उद्योग ढलान पर है। तमिलनाडु के बाद यह उद्योग पश्चिम बंगाल गया और फिर  मांग और आपूर्ति के हिसाब से अन्य राज्यों में फैल गया। आज देश के दस राज्यों में पटाखा निर्माण हो रहा है। 

बड़ा सवाल: कब आएंगे ग्रीन पटाखे
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेशों में ग्रीन पटाखों का भी उल्लेख किया था । हकीकत यह है कि ग्रीन पटाखे अभी देश में उपलब्ध नहीं है। वह सिर्फ प्रायोगिक अवस्था में ही हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी)  इन पर शोध कर रहा है। नीरी ने चार तरह के ग्रीन पटाखे बनाए हैं। पानी पैदा करने वाले पटाखे, सुगंध एरोमा क्रैकर्स, कम एल्युमिनियम पैदा करने वाले पटाखे और काम सल्फर और नाइट्रोजन पैदा करने वाले पटाखे। ग्रीन पटाखों में इस्तेमाल होने वाले मसाले बहुत हद तक सामान्य पटाखों से अलग होते हैं। नीरी ने कुछ ऐसे फॉर्मूले बनाए हैं, जो हानिकारक गैस कम पैदा करेंगे। लेकिन इस सबके बावजूद सच्चाई यही है कि ग्रीन पटाखे बाजार में आने में अभी समय लेंगे। तब तक आपको पटाखों और पर्यावरण के बीच संतुलन खुद बनाना होगा, ताकि त्यौहार का मजा भी मिले और वातावरण भी खराब न हो। शायद यही सुप्रीम कोर्ट की मंशा भी है, तभी तो उन्होंने पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया। वैसे आप अधिक से अधिक पेड़ लगाकर/बचाकर भी पटाखों वाली दिवाली और पर्यावरण, दोनों बचा सकते हैं।

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