आज के Modern जमाने में भी महिलाओं पर हो रहा अत्याचार, सामने आए डराने वाले आंकड़े

Edited By Sunita sarangal,Updated: 25 Oct, 2022 05:53 PM

atrocities on women even in today s modern era

आज जब हालात बहुत बदल गए है। महिलाएं घर की चारदीवारी की कैदी नहीं रही। महिलाएं हर क्षेत्र में बाजी मार कर पुरूषों के बराबर ही नहीं बल्कि आगे चलने का हौंसला दिखाने लगी हैं।

श्री मुक्तसर साहिब(तनेजा,खुराना): मानवीय समाज में पुरूष प्रधानता की कहानी सदियों पुरानी है। महिलाओं पर अत्याचार का आलम किसी एक समाज, फिरके या धर्म तक सीमित नहीं। महिलाओं पर अत्याचारों की गाथा संसार के हर समाज के इतिहास का पन्ना रही है। महिला का जीवन पुरूष की मलकीयत समझा जाता रहा है। महिला की तो सृजना ही पुरूष की इच्छाओं की पूर्ति के लिए की गई मानी जाती रही है। महिला के लिए उसके स्वयंमान व आजादी के कोई मायने नहीं होते। महिला की इच्छाएं पुरूष की गुलाम समझी जाती रही है।

संसार के किसी भी समाज में महिलाओं की किसी भी क्षेत्र में कोई होंद नहीं थी। महिलाओं की दुनिया सिर्फ घर की चारदीवारी तक महदूद होती थी। बाल बच्चे पैदा करके उनकी संभाल व घर के ओर कार्य निपटाने ही महिलाओं की जिम्मेवारी रही है। समाज की राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक गतिविधियों में महिलाओं की हिस्सेदारी बारे तो सोचा भी नहीं जा सकता। महिलाओं पर होने वाली हिंसा के मामले भी दिल दहला देने वाले थे। महिलाओं की मारपीट आम ही नहीं थी बल्कि यह मारपीट पुरूष का अधिकार ही समझा जाता रहा है। सति प्रथा, दासी प्रथा, दहेज प्रथा व बाल विवाह सहित तमाम बुराइयां सदैव ही महिला के गले का फंदा बनी रही है। लड़की के जन्म से ही उसके साथ भेदभाव का आलम शुरू होता रहा है। बेटों के मुकाबले बेटियों के पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई में भेदभाव का आलम हर घर की कहानी रहा है।

आज जब हालात बहुत बदल गए है। महिलाएं घर की चारदीवारी की कैदी नहीं रही। महिलाएं हर क्षेत्र में बाजी मार कर पुरूषों के बराबर ही नहीं बल्कि आगे चलने का हौंसला दिखाने लगी हैं। राजसी, आर्थिक व सामाजिक क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ने लगी है। इन सब तब्दीलियों के बावजूद महिला के अधिकारों की इबारत सदियों के बाद अधूरी है। दहेज प्रथा ने आज भी लड़कियों की जिंदगी नर्क बना रखी है। सदियों के बाद भी अभिभावक बेटियों को स्वीकारने से कन्नी कतरा रहे हैं। मादा भ्रूण हत्या के आलम ने लिंग अनुपात बिगाड़ रखा है। लड़कियों पर तेजाबी हमले की दिल दहला देने वाली घटनाओं में दिन-प्रतिदिन इजाफा हो रहा है। जिनसी शोषण की घटनाओं में आ रही तेजी चिंता का विषय है। हवसी नजरें आज भी महिला का लगातार पीछा कर रही हैं। और तो और महिलाओं का बड़ा हिस्सा अपने ही घर में असुरक्षित हो रहा है। महिलाओं पर होने वाली हिंसा, जिनसी शोषण व मादा भ्रूण हत्या आदि दुश्वारियों का असल आंकड़ा नश्र होने वाले आंकड़ों से कहीं ज्यादा है। महिलाओं की आजादी के लिए सदियों के बाद आज भी महिलाएं असल आजादी से वंचित है। केन्द्र सरकार ने महिलाओं के खिलाफ होने वाली घरेलू हिंसा रोकने के लिए 2005 में कानून पास किया। गुजारे, विवाह व तलाक आदि मामलों में संबंधित भी महिला को सुरक्षित करते कानून पास किए गए है, परंतु इन कानूनों के अमल की कहानी किसी से छुपी नहीं है।

आज भी मादा भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, जिनसी शोषण व घरेलू हिंसा की घटनाएं महिला की असल आजादी पर सवालिया निशान है। राजसी, सामाजिक व आर्थिक अधिकारों के बारे महिला की आजादी की हकीकत किसी से छुपी नहीं। महिलाओं की जिंदगी को आजादी के असल मुकाम तक पहुंचाने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है। महिला को आत्मनिर्भर बनाने व कार्यस्थल पर सुरक्षित माहौल मुहैया करवाने के लिए महिला प्रति मानसिक तब्दीली समय की सबसे बड़ी जरूरत है। महिला मनुष्य के सामाजिक जीवन की धरोहर है। हमारे गृह पर लगभग आधी आबादी महिलाओं की है। महिला मानवीय जीवन का एक धुरी है। धरती पर जीवन कभी भी इतना खुशगवार न होता अगर महिला इस कायनात का हिस्सा न होती। महिला के बिना समाज ही नहीं बल्कि सृष्टि ही अधूरी है। किसी भी समाज के विकास व सभ्यक होने का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां के लोगों का महिला प्रति क्या दृष्टिकोण है।

यह एक कड़वी सच्चाई है कि महिलाओं के साथ सदियों से ही धक्केशाही होती आई है। आज भी समाज में विचरते समय उसे अनेकों अन्याय व जबर जुल्मों का सामना करना पड़ रहा है, दुष्कर्म करके लड़की को मार देना व फिर सबूत मिटाने के लिए आग लगा देने जैसी घटनाएं सभ्यक समाज पर कलंक है। महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए बनाए काननू जब तक कार्य करते हैं तब तक तो महिला की होंद के कई पक्ष धुंधले हो चुके होते हैं। तब तक तो महिला सिर्फ अपना अक्ष बचा रही होती है। महिला की सामजिक दशा को सुधारने के लिए महिलाओं को व हमारे समाज के पुरूषों केा मिलकर प्रयास करना पड़ेगा। एक ऐसे समाज की सृजना की जाएं, जहां महिलाएं अपने आप को सुरिक्षत समझें।

लड़कियों को समाज में नहीं मिला समानता का हक

समाज सेवक व शिवालिक पब्लिक सीनियर सेकेंडरी स्कूल श्री मुक्तसर साहिब के प्रिंसिपल राकेश परूथी, सेवा मुक्त डी.टी.ओ. गुरचरण सिंह संधू, आम आदमी पार्टी के ब्लॉक प्रिंसिपल सिमरजीत सिंह बराड़ लक्खेवाली, प्रिंसिपल साधू सिंह रोमाना, महिला व बाल भलाई संस्था पंजाब के चेयरपर्सन हरगोबिंदर कौर, डॉक्टर किरनदीप कौर, नवदीप कौर ढिल्लों व रमणीक सुक्खी ने कहा कि लड़कियां किसी भी क्षेत्र में लड़कों से कम नहीं बल्कि हर क्षेत्र में लड़कों से लड़कियां कहीं आगे है। उन्होंने कहा कि लड़कों के बराबर लड़कियों को प्यार, मान सत्कार मिले, क्योंकि अकेले लड़के ही नहीं कमाते, बेटियां भी दिन रात काम करती हैं। उनकी जिंदगी की भी ख्वाहिशें व उम्मीद है। इसलिए लोगों को अपनी सोच बदलनी चाहिए। बेटों जैसे बेटियों का लाड लडाए जाए, उन्हें खुशियां दी जाएं। जितना मोह-प्यार व इज्जत बेटियां अपने अभिभावकों की करती है, उतनी बेटे नहीं करते।

आंकड़े बोलते हैं

अगर आंकड़ों पर नजर मारी जाए तो महिलाओं की हालत की एक बेहद भयंकर तस्वीर सामने आती है। राष्ट्रीय जुर्म रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी हुई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर 3.5 मिनट में महिलाओं के खिलाफ एक जुर्म होता है। महिलाओं के खिलाफ होते जुर्मों में घरेलू हिंसा का हिस्सा 33.3 प्रतिशत है। 1997 से 2002 बीच घरेलू हिंसा में 34.5 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। दि स्टेट ऑफ वर्ल्ड पापुलेशन रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर 54 मिनट में एक दुष्कर्म, हर 26 मिनट में छेड़छाड़, 43 मिनट में एक महिला अगवा, एक घंटा 42 मिनट के बाद दहेज के कारण मौत, हर 7 मिनट के बाद महिलाओं के साथ किसी न किसी किस्म की अपराधिक घटना होती है। एक और रिपोर्ट के अनुसार देश में हर रोज दुष्कर्म की 19 घटनाएं हो रही हैं। इन आंकड़ों में जो दिखाई दे रहा है वह तो असल तस्वीर का एक अंश ही है। महिलाओं को हर पल जो लूट, दाबा, गुलामी झेलनी पड़ती है वह शब्दों में या आंकड़ों में जाहिर नहीं हो सकती।

सवाल यह पैदा होता है कि महिलाओं की यह बुरी हालत कैसे बदली जा सकती है? वह कौन-सा ढंग, तरीका, वह कौन-सा रास्ता हो सकता है जिसके जरिए पुरूष प्रधानता खत्म होगी?

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