पंजाब में दूर हो सकता है भूजल संकट, कृत्रिम बारिश पर खर्च करने पडेंगे रोजाना 18 लाख

Edited By Suraj Thakur,Updated: 24 Jun, 2019 02:58 PM

artificial rain required for groundwater crisis in punjab

रॉकेट के शीर्ष पर मौजूद सिल्वर आयोडीन बादलों में जाकर विस्फोटित हो जाता है। इससे बादलों में एक रासायनिक क्रिया होती है, जिसके चलते 40 से 60 मिनट में बारिश हो जाती है।

जालंधरः (सूरज ठाकुर) मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह पंजाब में गिरते भू-जल संकट को लेकर आजकल बहुत ही गंभीर नजर आ रहे हैं। वह इस बात को लेकर लेकर चिंतित है कि यदि समय रहते इससे निपटा नहीं गया तो आने वाली पीढ़ियों को पानी की बूंद-बूंद के लिए तरसना पड़ेगा। राज्य में हर साल भू-जल का स्तर 2 से 3 फुट नीचे जा रहा है, 100 से 120 फुट के हजारों बोर सूख चुके हैं। पाकिस्तान की ओर बह रहा अथाह दरियायी पानी भी तभी रोका जा सकेगा जब कंडी डैम परियोजना का कार्य पूरा होगा। ऐसे में पंजाब के लिए क्लाउड-सीडिंग के जरिए कृत्रिम बारिश वरदान साबित हो सकती है। कृत्रिम बारिश से राज्य में मानसून के दौरान होने वाली सामान्य बारिश की कमी को पूरा किया जा सकता है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के सूखाग्रस्त इलाकों में पानी के संकट से निपटने के लिए कृत्रिम बारिश पर करोडों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। अगर पंजाब भी इसी तर्ज पर कार्य करता है तो भू-जल के इस्तेमाल को कम किया जा सकता है। आंध्र प्रदेश का अनुभव बताता है कि कृत्रिम बारिश पर रोजाना करीब 18 लाख रुपए का खर्च आता है।PunjabKesari
  

क्या है क्लाउड-सीडिंग का कांसेप्ट 
क्लाउड-सीडिंग से बारिश करवाने के लिए आम तौर पर एयरक्राफ्ट का इस्तेमाल किया जाता है। एयरक्राफ्ट में सिल्वर आयोडाइड के दो बर्नर या जनरेटर लगे होते हैं, जिनमें सिल्वर आयोडाइड का घोल हाई प्रेशर पर भरा होता है। निधारित  इलाके में इसे हवा की उल्टी दिशा में चलाया जाता है। बादल से सामना होते ही बर्नर चालू कर दिए जाते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड-सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। शुष्क बर्फ, पानी को जीरो डिग्री सेल्सियस तक ठंडा कर देती है, जिससे हवा में मौजूद पानी के कण जम जाते हैं। कण इस तरह से बनते हैं, जैसे वे कुदरती बर्फ हों। इसके लिए बैलून, विस्फोटक रॉकेट का भी प्रयोग किया जाता है। क्लाउड सीडिंग का पहला प्रदर्शन जनरल इलेक्ट्रिक लैब द्वारा फरवरी 1947 में बाथुर्स्ट, ऑस्ट्रेलिया में किया गया था। उसके बाद से तमाम देशों ने इसे यूज किया। PunjabKesari
 

ऐसे भी करवाई जाती है कृत्रिम बारिश
पहले चरण में केमिकल्स को एयरक्राफ्ट्स के जरिए उस इलाके के ऊपर बहने वाली हवा में भेजा जाता है, जहां बारिश करवानी हो। यह कैमिकल्स हवा में मिलकर बारिश वाले बादल तैयार करते हैं। इस प्रक्रिया में कैल्शियम क्लोराइड, कैल्शियम कार्बाइड, कैल्शियम ऑक्साइड, नमक तथा यूरिया के यौगिक और यूरिया, अमोनियम नाइट्रेट के यौगिक का इस्तेमाल किया जाता है। ये यौगिक हवा से जलवाष्प को सोख लेते हैं और दवाब बनाने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं। दूसरे चरण में बादलों के द्रव्यमान को नमक, यूरिया, अमोनियम नाइट्रेट, सूखा बर्फ और कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग करके बढ़ाया जाता है। तीसरे चरण में सिल्वर आयोडाइड और शुष्क बर्फ जैसे ठंडा करने वाले रसायनों की आसमान में छाए बादलों में बमबारी की जाती है। ऐसा करने से बादल में छुपे पानी के कण बिखरकर बारिश के रूप में जमीन पर गिरने लगते हैं।PunjabKesari 
 

80 किलोमीटर दूर तक ट्रांसफर किए जा सकते हैं बादल
मुबई स्थित इंटरनेशनल स्कूल ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज के निदेशक एवं ट्रस्टी अब्दुल रहमान वानू ने दावा किया था कि आधुनिक तकनीक से किसी सूखे क्षेत्र में बारिश करवाने के लिए एक बादल को उसकी मूल स्थिति से अधिकतम 80 किलोमीटर की दूरी तक स्थानांतरित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के लिए 47 प्रतिशत शुद्धता वाले सिल्वर आयोडीन की जरूरत होती है, जिसे कि अर्जेंटीना से आयात किया जाता है। इस आयात के लिए हमें राज्य सरकार से अंतिम उपभोक्ता प्रमाणपत्र (एंड यूजर सर्टिफिकेट) चाहिए होता है। प्रमाणपत्र मिलने के बाद आयोडीन का आयात किया जा सकता है और कृत्रिम बारिश करवाई जा सकती है। उनका यह भी कहना है कि राकेट तकनीक का परीक्षण सिंधुदुर्ग और सांगली जैसे इलाकों में किया गया है। यह जमीन से दागे जाने पर 45 किलोमीटर की दूर स्थित लक्ष्य को भेद सकता है। रॉकेट के शीर्ष पर मौजूद सिल्वर आयोडीन बादलों में जाकर विस्फोटित हो जाता है। इससे बादलों में एक रासायनिक क्रिया होती है, जिसके चलते 40 से 60 मिनट में बारिश हो जाती है।PunjabKesari

इन राज्यों में क्लाउड सीडिंग प्रोजेक्ट 
पानी के संकट से निपटने के लिए भारत के कुछ राज्य अपने ही स्तर पर पिछले 35 वर्षों से प्रेजेक्ट चला रहे हैं। तमिलनाडु सरकार ने 1983 में सूखाग्रस्त इलाकों में पहली बार कृत्रिम बारिश करवाई थी। 2003 और 2004 में कर्नाटक सरकार ने क्लाउड सीडिंग प्रक्रिया को अपानाया और इसके साकारात्मक परिणाम आने पर आज भी राज्य के सूखाग्रस्त इलाकों में कृत्रिम बारिश का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके बाद महाराष्ट्र ने भी सूखे से निपटने के लिए अपने स्तर पर कृत्रिम बारिश का सहारा लिया। आंध्र प्रदेश में 2008 से 12 जिलों में कृत्रिम बारिश करवाने का प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है। प्रदेश में कृत्रिम वर्षा के लिए सिल्वर आयोडाइड के स्थान पर कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग किया जा रहा है। आंध्र प्रदेश में कृत्रिम बारिश पर रोजाना करीब 18 लाख रुपए का खर्च आता है।PunjabKesari
 

महाराष्ट्र और कर्नाटक ने कृत्रिम बारिश के लिए जारी किए 119 करोड़ 
सूखे की स्थिति से निपटने के लिए 2003 और 2004 में कर्नाटक सरकार ने क्लाउड सीडिंग के कांसेप्ट को अपनाया और सूखाग्रस्त इलाकों में कृत्रिम बारिश करवाई। 2019 में लोकसभा चुनाव के बाद हुई पहली कैबिनेट बैठक में राज्य सरकार ने सूखा ग्रस्त इलाकों में बारिश करवाने के लिए 89 लाख रुपए र्खच किए जाने को मंजूरी दी है। यह प्रोजेक्ट 2 साल तक राज्य में चलेगा। प्रदेश में 2009 में अमरीकी कंपनी के सहयोग से क्लाउड सीडिंग का आगाज हुआ था। महाराष्ट्र में इस साल सूखे की स्थिति से निपटने के लिए कैबिनेट ने 30 करोड़ रुपए की मंजूरी दी है। इसके तहत क्लाउड सीडिंग का प्रयोग  विदर्भ, मराठवाड़ा और उत्तर महाराष्ट्र में किया जाएगा। राहत और पुनर्वास मंत्री चंद्रकांत पाटिल का कहना है कि इस प्रयोग से हमारे जल भंडारों का स्टॉक सुरक्षित रहेगा। उन्होंने उम्मीद जताई की कर्नाटक की तरह क्लाउड सीडिंग के सूखाग्रस्त इलाकों में अच्छे परिणाम आएंगे।PunjabKesari
 

कृत्रिम बारिश के लिए सावधानियां
क्लाउड सीडिंग में यह ध्यान रखना पड़ता है कि किस तरह का और कितनी मात्रा में केमिलकल इस्तेमाल होंगे। मौसम का मिजाज का भी कृत्रिम बारिश के लिए पूरा ख्याल रखा जाता है। कैमिक्लस को जिस जगह फेंकना है वहां के वातावरण को पूरी तरह से स्टडी करना पड़ता है। कंप्यूटर और राडार के प्रयोग से मौसम के मिजाज, बादल बनने की प्रक्रिया और बारिश के लिए जिम्मेदार घटकों पर हर पल नजर रखनी होती है

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