Edited By Updated: 31 Jan, 2017 11:08 AM
यूं तो देशभर में दलित समाज की राजनीतिक चेतना के रूप में जानी जाती बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के सर्वेसर्वा बाबू कांशी राम की जड़ें पंजाब में हैं
चंडीगढ़(रमनजीत सिंह): यूं तो देशभर में दलित समाज की राजनीतिक चेतना के रूप में जानी जाती बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के सर्वेसर्वा बाबू कांशी राम की जड़ें पंजाब में हैं लेकिन यही वो जमीं रही है जहां दलित भाईचारे की अच्छी-खासी संख्या होने के बावजूद बहुजन समाज पार्टी को ज्यादा अच्छे नतीजे प्राप्त नहीं हो पाए हैं। एकाध ही ऐसे मौके रहे हैं जब खुद को दलित समाज की प्रतिनिधि कहलाने वाली बहुजन समाज पार्टी को पंजाब में विजयश्री हासिल हुई हो।
पंजाब में दलित चेतना का असर कहें या फिर रणनीति, यहां का दलित भाईचारा हमेशा से ही राजनीतिक दलों में संतुलन बनाकर चलता आया है। पंजाब में दलित वोटबैंक पर सभी पार्टियों की नजर है। राज्य की लगभग हर पार्टी यही चाह रही है कि 33 फीसदी से अधिक आबादी वाले और खासतौर पर दोआबा इलाके में वर्चस्व वाले इस वोटबैंक को किसी भी तरह अपने पक्ष में किया जा सके। पंजाब विधानसभा चुनाव के नतीजे प्रभावित करने का दम रखने वाले इस भाईचारे को रिझाने की कोशिश में कोई पार्टी ‘दलित मैनीफैस्टो’ अलग से लेकर आई तो किसी पार्टी ने अपने दलित नेताओं को ऊंचे पदों पर बैठाया ताकि यह प्रभाव दिया जा सके कि संबंधित पार्टी कितनी शिद्दत के साथ ‘दलित समाज’ के उत्थान में अपना सहयोग दे रही है। हालांकि यहां की राजनीति में अक्सर समझा जाता रहा है कि दलित भाईचारा आजादी के बाद से ज्यादातर कांग्रेस के पक्ष में ही भुगतता रहा है लेकिन ऐसा नतीजों से नहीं दिखता क्योंकि चुनावी नतीजों के आंकड़े कुछ और ही गवाही देते हैं।
वर्ष 1992 में 29 में से 20 आरक्षित सीटों पर जीती थी कांग्रेस
हालांकि कुछ ही वर्षों के दौरान राजनीति और समाज की राजनीतिक चेतना में बहुत से बदलाव आए हैं। लगातार बदलती तस्वीर को सही ढंग से पेश कर पाना थोड़ा मुश्किल है लेकिन यदि विधानसभा के पिछले करीबन छह चुनावों के आंकड़ों पर नजर दौड़ाई जाए तो कमोबेश ऐसी तस्वीर उभरती है कि दलित समाज का एक पक्षीय होना एक ‘राजनीतिक मिथक’ है। वर्ष 1992 के दौरान जब शिरोमणि अकाली दल ने विधानसभा चुनाव का बायकाट किया था उस समय भी कांग्रेस आरक्षित 29 में से 20 सीटों पर जीत हासिल कर सकी थी। दलित सीटों पर कांग्रेस के विजयी रथ को बहुजन समाज पार्टी ने रोका था। यही चुनाव था जब बसपा के 6 उम्मीदवार जीते थे, जबकि यही वो चुनाव था जब समाना से कैप्टन अमरेंद्र के खिलाफ किसी ने नामांकन नहीं किया और वह निर्विरोध जीते थे।
वर्ष 2002 में कांग्रेस के 14 दलित प्रत्याशी जीते थे
रिजर्व सीटों के आंकड़ों पर गौर करें तो 2002 में शिरोमणि अकाली दल बड़े संकट में था क्योंकि शिअद के बड़े नेता गुरचरन सिंह टोहड़ा अलग हुए और सर्वहिंद अकाली दल बनाकर चुनाव मैदान में उतर आए थे। इस चुनाव में 14 दलित प्रत्याशी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे थे। जबकि दोफाड़ होने के बावजूद शिरोमणि अकाली दल के 12 प्रत्याशी आरक्षित सीटों से चुनाव जीते थे। वहीं दलित सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की समय-समय पर उपस्थिति दिखती रही है। 1997 में भाजपा ने 4 सुरक्षित सीटों पर चुनाव जीता था। महत्वपूर्ण बात यह थी कि भाजपा चार ही सुरक्षित सीटों पर लड़ी थी और सभी सीटों पर मुकाबला कांग्रेस के साथ था। दीनानगर, नरोट मेहरा, जालंधर साऊथ और फगवाड़ा सीटों पर भाजपा ने कांग्रेस को करारी शिकस्त दी थी, जबकि अगले चुनाव में दलित सीटों पर उसका सूपड़ा साफ हो गया था। सुरक्षित सीटों पर भाजपा का एक भी प्रत्याशी 2002 के चुनाव नहीं जीत सका था।
आतंकवाद के समय में भी पिछड़ी थी कांग्रेस
ऑप्रेशन ब्लू स्टार के बाद जब 1985 में दोबारा चुनाव का बिगुल बजा तब भी कांग्रेस दलित सीटों पर शिरोमणि अकाली दल से पीछे थी। अकाली दल के रिजर्व सीटों पर 18 प्रत्याशी जीते थे, जबकि कांग्रेस के 10 प्रत्याशी जीते थे।
आरक्षित सीटों पर किस पार्टी को कितनी मिली जीत
वर्ष 1985
आरक्षित सीटें : 29
पार्टी जीते
अकाली दल 18
कांग्रेस 10
भाजपा 01
वर्ष 1992
आरक्षित सीटें : 29
पार्टी जीते
कांग्रेस 20
बी.एस.पी. 06
एस.ए.डी. 01
सी.पी.आई. 01
यू.सी.पी.आई. 01
वर्ष 1997
आरक्षित सीटें : 29
पार्टी जीते
अकाली दल 23
भाजपा 04
कांग्रेस 01
सी.पी.आई. 01
शिअद ने सबसे ज्यादा आरक्षित सीटें जीती थीं।
वर्ष 2002
आरक्षित सीटें : 29
पार्टी जीते
कांग्रेस 14
अकाली दल 12
आजाद 01
सी.पी.आई. 02
वर्ष 2007
आरक्षित सीटें : 29
पार्टी जीते
अकाली दल 17
भाजपा 03
कांग्रेस 07
आजाद 02
वर्ष 2012
आरक्षित सीटें : 34
पार्टी जीते
अकाली दल 21
भाजपा 03
कांग्रेस 10