दास्तान-ए-साका चमकौर साहिबःजब तीर कलेजे में लगे ‘सी’ नहीं करना....

Edited By swetha,Updated: 23 Dec, 2019 01:19 PM

dastan chamkor sahib

पौष का महीना सिख कौम के लिए बहुत ही अहमियत रखता है।

फतेहगढ़ साहिबः पौष का महीना सिख कौम के लिए बहुत ही अहमियत रखता है। इस महीने में सिंहों ने बहुत शहादतें दी हैं। श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी को श्री आनन्दपुर साहिब का किला इसी महीने छोड़ना पड़ा। शाही पहाड़ी, झक्खियां की जूह, मलकपुर रंगड़ां के युद्ध, परिवार बिछोड़ा, भट्ठा साहिब, चमकौर साहिब जी का युद्ध और सरहिन्द का साका इसी महीने में  हुए। सिख कौम में पौष के महीने कोई भी खुशी वाले प्रोग्राम नहीं किए जाते। खास तौर पर 7 से 13 पौष तक के समय को काली रातें कहा जाता है।

श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी 6 और 7 पौष की रात को (5 और 6 दिसम्बर 1705 ईस्वी को) आनन्दपुर साहिब को छोड़ कर आ गए और रास्ते में सिखों व मुगल फौजों का भारी युद्ध हुआ। गुरु जी का परिवार बिछुड़ गया। छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह, बाबा फतेह सिंह और माता गुजरी जी गुरुघर के रसोइए गंगू ब्राह्मण के साथ सहेड़ी गांव की ओर चले गए और महल से माता सुन्दरी जी और माता साहिब कौर जी भाई मनी सिंह जी के साथ दिल्ली चले गए। बड़े साहिबजादे बाबा अजीत सिंह, बाबा जुझार सिंह, श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी और 40 सिंह चमकौर साहिब जी की ओर चल पड़े।

चमकौर साहिब में जगत सिंह की कच्ची गढ़ी (हवेली) होती थी। गुरु जी ने पांच सिंहों को जगत सिंह के पास भेजा और गढ़ी की मांग की, जिससे दुश्मन फौज का मुकाबला करने के लिए कोई अड्डा बन सके। परंतु वह मुगल सेना से डरते हुए न माना। गुरु जी ने उसको गढ़ी का किराया देने और फिर पूरा मूल्य देने की भी पेशकश की परन्तु वह नहीं माना। फिर जगत सिंह के छोटे भाई रूप सिंह को गुरु जी ने बुलाया जोकि अपने हिस्से की आधी गढ़ी का कब्जा देने को मान गया। यह गढ़ी ऊंची जगह पर स्थित थी और लड़ाई के लिए सबसे अधिक सुरक्षित थी। गुरु जी भाई रूप सिंह की गढ़ी में आ गए। 

रात को गुरु जी ने कड़ा पहरा लगा कर सभी सिंहों की ड्यूटियां लगा दीं। जल्दी ही युद्ध शुरू हो गया तथा सिंह जत्थों के रूप में रण में जूझते और अनेक शत्रुओं को मौत के घाट उतार कर शहादतें प्राप्त करने लगे। श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी की आज्ञा पाकर बाबा अजीत सिंह जी रण में उतरे। कहा जाता है कि जब साहिबजादा अजीत सिंह जालिमों के सामने आए तो बाबा जी का तेज देखकर दुश्मन कांप कर रह गया। जब हाथ में तलवार लेकर बाबा जी ने घुमाई तो दुश्मन को गश पडऩे लगे। आप जी दूसरे सिंहों का हौसला बढ़ाते हुए युद्ध के मैदान में घोड़ा दौड़ा कर घूम रहे थे। जिस तरफ भी साहिबजादा अजीत सिंह जाते मुगलों की फौज में भागदौड़ मच जाती। श्री गुरु गोबिन्द सिंह भी अपने सुपुत्र को लड़ते हुए किले से देख रहे थे।

आखिर दुश्मन की फ़ौज ने साहिबज़ादा जी को चारों ओर से घेर लिया और आप जी 8 पौष सम्वत 1761 बिक्रमी को श्री चमकौर साहिब में अपने पिता जी की आंखों के सामने शहादत का जाम पी गए। जब बाबा जुझार सिंह जी ने अपने बड़े भाई बाबा अजीत सिंह जी को शहादत का जाम पीते देखा तो आप जी ने भी युद्ध में जाने की आज्ञा मांगी। गुरु जी ने अपने लाडले सुपुत्र को अपने हाथों युद्ध के लिए तैयार किया और युद्ध

 भूमि में भेज दिया और कहा : 
जब तीर कलेजे में लगे ‘सी’ नहीं करना।
उफ मुंह से मेरी जान कभी भी नहीं करना।
ख्वाहिश है तुम्हें तेग चलाते हुए देखें।
हम आंख से बर्छी तुम्हें खाते हुए देखें।’

साहिबजादा बाबा जुझार सिंह जी अपने पिता गुरु जी की आज्ञा पाकर मैदान-ए- जंग में उतर आए। युद्ध में साहिबजादा जी ने भगदड़ मचा दी। बाबा जुझार सिंह जी की बहादुरी देख कर मुगल सेना के बड़े से बड़े जरनैल भी हैरान रह गए। बाबा जी जिस तरफ भी जाते हर तरफ दुश्मन यही कहते कि यह गुरु जी का बेटा है इससे बचो।  जब दुश्मन जरनैल ने देखा कि एक छोटा-सा सिंह ही उनके 20-20 सैनिकों को मार रहा है तो वह आगे आकर बोला कि सभी इकट्ठा होकर क्यों नहीं घेरा डालते? आखिर बाबा जुझार सिंह जी को बड़ी संख्या में दुश्मनों ने इकट्ठा होकर घेर लिया। चारों ओर से घिरे हुए भी बाबा जी कईयों को मौत के घाट उतार गए। फिर किसी ने हिम्मत करके तीर के साथ वार किया जोकि बाबा जी को गंभीर घायल कर गया।

इतने में बाकी के दुश्मनों ने भी जोरदार हमले शुरू कर दिए। बाबा जुझार सिंह जी कईयों को मारते हुए शहीद हो गए। गुरु जी ने गढ़ी से ही फतेह का जयकारा लगा दिया और अकाल पुरुष का शुकराना किया। आखिर बाकी रहते पांच सिंहों ने गुरमता करके गुरु जी को गढ़ी से बाहर जाने के लिए कहा। सिंहों ने कहा कि गुरु जी आपका यहां से जिंदा निकलना बहुत ही जरूरी है, क्योंकि आप तो लाखों ही सिंह सजा लोगे परन्तु लाखों करोड़ों सिंह भी मिलकर एक गुरु गोबिन्द सिंह जी कायम नहीं कर सकते। गुरु जी ने कहा कि वह चोरी-चोरी नहीं जाएंगे बल्कि दुश्मन को खबरदार करके और ललकार कर जाएंगे। भाई दया सिंह जी, भाई धर्म सिंह जी और भाई मान सिंह जी को गुरु जी के साथ ही गढ़ी  से बाहर जाने का हुक्म दे दिया।

इस युद्ध में जहां दुश्मन फौज का बहुत नुक्सान हुआ वहां सिख कौम को भी न पूरा होने वाला घाटा पड़ा था। गुरु जी के दो साहिबजादे बाबा अजीत सिंह जी और बाबा जुझार सिंह जी, गुरु जी के पांच प्यारों में से तीन प्यारे भाई हिम्मत सिंह जी, भाई मोहकम सिंह जी और भाई साहिब सिंह जी भी इस युद्ध में शहादत का जाम पी गए। 

गुरु जी ने गढ़ी में से जाने से पहले भाई संगत सिंह जी को अपनी कलगी और पोशाक पहना दी थी। इसीलिए गढ़ी साहिब जी को तिलक स्थान भी कहा जाता है। यहां ही गुरु जी ने फरमाया था कि खालसा गुरु और गुरु खालसा है। गुरु जी रात के समय जब गढ़ी में से बाहर निकले तो उस समय गढ़ी में 8 सिंह बाकी रह गए थे। यह भाई संत सिंह, भाई संगत सिंह जी के अलावा चारों तरफ बुर्जों में बिठाए गए भाई राम सिंह, केहर सिंह, संतोख सिंह, देवा सिंह और नगाड़ा बजाने के लिए स्थापित किए गए भाई जीवन सिंह जी और भाई काठा सिंह जी थे। 

गुरु जी ने गढ़ी में से बाहर निकल कर एक पुराने पीपल के वृक्ष नीचे खड़े होकर ताली बजाकर कहा, पीर-ए हिंद में रवद। इसका तात्पर्य यह है कि ङ्क्षहद का पीर जा रहा है। वास्तव में चमकौर साहिब को घेरे बैठी फौज में ख्वाजा मरदूद खान भी शामिल था जोकि यह शेखी मार कर आया था कि वह गुरु जी को जिंदा पकड़ कर लाएगा। गुरु जी को भी इस बात का पता था इसलिए गुरु जी ने ख्वाजा को भी चुन्नौती दी जिससे कहीं ख्वाजा यह न समझे कि गुरु जी तो चोरी-चोरी निकल गए। नहीं तो वह पकड़ लेता। 

जब गुरु जी ने 3 बारी ताली मार कर सारी फ़ौज को ललकारा तो उधर गढ़ी में मौजूद सिंहों ने जयकारे लगाने शुरू कर दिए। जयकारों की गूंज और गुरु जी की ताली की आवाज़ सुन कर दुश्मन फौज में भगदड़ मच गई। वह नींद में थे और उन्हें लगा कि बाहर से और फौज आ गई है इसलिए अकस्मात वे उठे और आपस में ही एक-दूसरे को मारने काटने लग पड़े। अपनी ही फ़ौज का नुक्सान करके बाद में उनको पता लगा कि गुरु जी तो यहां हैं ही नहीं। जहां गुरु जी ने ताली मार कर दुश्मन को सजग किया था वहां आजकल गुरुद्वारा ताली साहिब और गढ़ी वाली जगह पर गुरुद्वारा गढ़ी साहिब जी बने हुए हैं। जहां लड़ाई हुई और फिर बाद में सभी शहीद सिंहों का अंगीठा तैयार करके संस्कार किया गया वहां मुख्य गुरुद्वारा कत्लगढ़ साहिब सुशोभित हैं। 

बाबा प्यारा सिंह जी ने इस जगह कार सेवा करवाई। जब इस जगह की खुदाई हो रही थी तो यहां लड़ाई का सबूत बहुत सारा सामान प्राप्त हुआ जोकि संगत के दर्शनों के लिए यहां संभाल कर रखा गया है। यहां हर साल 6, 7 और 8 पौष को शहीदों सिंहों की याद में शहादत जोड़ मेला भरता है। देश- विदेश से लाखों की संख्या में संगत यहां आकर नतमस्तक होती है। 

महाभारत और रामायण काल से भी जुड़ता है चमकौर साहिब का इतिहास 
चमकौर साहिब जिला रूपनगर में पड़ता एक ऐतिहासिक नगर है। किसी समय पर इसका नाम चंपा नगरी भी होता था। इस नगर का इतिहास महाभारत और रामायण काल के साथ जा जुड़ता है। यह राजा द्रुपद की राजधानी थी और द्रौपदी का स्वयंवर भी इसी जगह पर हुआ था। यहां हड़प्पा काल की निशानियां भी मिलती हैं। पहले यह जिला अम्बाला का हिस्सा होता था। यहां दुनिया भर के इतिहास में शायद पहला ऐसा युद्ध हुआ जिसमें एक तरफ पूरे देश की हुकूमत, पहाड़ी राजाओं का टिड्डी दल और इलाके के कट्टर लोग तथा दूसरी तरफ भूख और नींद के सताए मुट्ठी भर सिंह और गुरु गोबिन्द सिंह जी थे। इसके बावजूद सभी सिंहों के हौसले बुलंद थे।

साहिबजादा अजीत सिंह व जुझार सिंह ने किया 10 लाख फौज का मुकाबला
साहिबजादा बाबा अजीत सिंह जी का जन्म पाऊंटा साहिब की पवित्र धरती पर श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के गृह में माता सुन्दरी जी की कोख से तब हुआ था जब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने पाऊंटा साहिब में रहते भंगानी का युद्ध फतह किया था। इसलिए युद्ध जीतने की खुशी में गुरु जी ने साहिबजादा जी का नाम अजीत सिंह रखा।
बाबा जुझार सिंह जी का जन्म माता जीतो जी की कोख से सन 1747 में हुआ। श्री चमकौर साहिब में 10 लाख फौज का मुकाबला जिस बहादुरी के साथ दोनों साहिबजादों और बाकी के सिंहों ने किया, उसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती। प्रस्तुति : गुरप्रीत सिंह नियामियां 

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