विश्व डाक दिवस: चिट्ठी न कोई संदेश, ना जाने कौन सा देश...कहां तुम चले गए

Edited By Vaneet,Updated: 09 Oct, 2018 10:51 PM

world post day no message or letter

आज विश्व डाक दिवस है। एक समय था जब साइकिल पर खाकी कपड़े पहने और कंधे पर झोला टांगे जब भी डाकिया घरों के पास से गुजरता था ...

होशियारपुर (अमरेन्द्र): आज विश्व डाक दिवस है। एक समय था जब साइकिल पर खाकी कपड़े पहने और कंधे पर झोला टांगे जब भी डाकिया घरों के पास से गुजरता था तो हर किसी की आंखों में उम्मीद झलक उठती थी। बूढ़ी आंखों में बेटे के आने की खबर, तो नन्हे कदमों को पिता के आने की आहट तो वहीं दूर ससुराल में बैठी बेटी को मायके की खबर के लिए दिल में बेचैनी हो उठती थी। बस हर किसी के दिल-दिमाग में एक ही बात दौड़ती थी कि डाकिया बाबू मेरे लिए खत लेकर आए हैं।
 
आज की पीढ़ी को नहीं मालूम डाकिए की अहमियत
डाक विभाग की अहमियत आज की पीढ़ी शायद ही समझे। मोबाइल, फोन एसएमएस, कोरियर और इंटरनेट ने संदेशों का आदान-प्रदान तो आसान कर दिया, मगर इंतजार का वह लम्हा छीन लिया जिसमें रोमांच होता था। वक्त बदल गया है, लेकिन शायद वो इंतजार अभी भी लोग नहीं भूले हैं जो कभी डाकिए के लिए किया करते थे। आज भी छोटे कस्बों और गांवों में बड़ी शिद्दत से डाकिए का इंतजार होता है। पोस्ट ऑफिस आज भी बहुतों के लिए बहुत कुछ है।

चिट्ठी लिखने की प्रवृति हो गई खत्म
चिट्ठियों का दौर खत्म होने से लोगों के अंदर लिखने की प्रवृत्ति खत्म हो गई है। आज की पीढ़ी लिखना नहीं जानती। कम से कम चिट्ठियों की वजह से लोगों के अंदर लिखने की तो आदत थी। फेसबुक और वॉट्सऐप के जमाने में हमारा धैर्य खत्म हो रहा है। नई तकनीक के आने से जमाना जरूर तेज हो गया है। एक फोन घुमाया और जहां चाहा बात कर ली। वह दौर धीमा जरूर था, लेकिन लोगों के अंदर संवेदनाएं तो थीं, जो अब खत्म हो गई हैं।

खत्म हो गया अब पोस्टमैन अंकल का इंतजार
गौरतलब है कि उस जमाने में बड़े चाव से प्रियजनों के पत्रों का इंतजार रहता था। डाकिए की साइकिल की घंटी सुनते ही बांछें खिल जाती थी। सभी लोग डाकिए से मिलने के लिए दौड़ पड़ते थे। कई बार तो सबसे पहले चिट्ठी पढ़ने के लिए छीना-झपटी भी हुआ करती थी। लंबे इंतजार के बाद चिट्ठी में लिखे एक-एक शब्द को पढ़कर जो अंदर महसूस होता था, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। प्रियजनों की सिर्फ चिट्ठी नहीं, उसमें उनका लिपटा प्यार भी आता था। 

चिट्ठियों के जमाने में रिश्ते धीरे-धीरे पकते थे
चिट्ठियों के उस दौर की बात ही अलग हुआ करती थी। चिट्ठियों में भाव और भाषा का संगम हुआ करता था। पत्र लिखते समय हम संवेदनाओं की गहराई में उतरते थे। पत्रों के उस जमाने में जीवन में रस था, जो अब खत्म हो गया है। चिट्ठियों के जमाने में रिश्ते धीरे-धीरे पकते थे। उस दौर में जीवन में इतनी नकारात्मकता नहीं थी। आज की तरह हालात नहीं थे कि किसी के प्रति मन में आवेश आया और फोन उठाकर भड़ास निकाल दी। 

डाकियों को लोग मानते थे देवदूत
उस दौर में पत्र लिखने की कला श्रेष्ठ मानी जाती थी। पत्र लिखना सिर्फ कुशल-क्षेम जानने का माध्यम नहीं था, बल्कि पत्रों के जरिए भाषा के सौंदर्य का विकास होता था। पत्र लिखते हुए हमारे अंदर संवेदनाओं का जन्म होता था। साहित्य में रुचि रखने वाले लोग पत्र के माध्यम से भी अपनी भावनाओं को शब्द देते थे। प्रेमी-प्रेमिका ही नहीं, बल्कि पत्नियां भी चिट्ठी के सहारे ही कई-कई महीने पति से दूर रह लेती थीं। डाकियों को तो लोग देवदूत माना करते थे। 
 

विछोह की पीड़ा को पत्र ही करते थे शांत 
उस जमाने में भले ही एक-दूसरे का कुशल क्षेम जानने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता था, लेकिन उस जमाने की एक अलग रूमानियत थी। माता-पिता को पत्र लिखते समय आंसू से पन्ने भीग जाते थे। जब भी घर से पत्र आया करता था, धड़कनें बढ़ जाया करती थीं। विछोह की पीड़ा को पत्र से ही शांत होती थी।


 

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