कुर्बानियों के 100 वर्ष: पहले विश्व युद्ध से बनने लगी थी जलियांवाला बाग कांड की भूमिका

Edited By Vatika,Updated: 13 Apr, 2019 09:55 AM

jallianwala bagh jallianwala massacre

जलियांवाला बाग के खूनी कांड को आज 100 वर्ष पूरे हो गए हैं। आज ही के दिन 1919 में वैसाखी वाले दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में अंग्रेज जनरल डायर के हुकुम पर चलाई गईग गोली में सैंकड़ों निहत्थे लोगों की मौत हुई थी लेकिन इसकी भूमिका पहले विश्व युद्ध के...

अमृतसरः जलियांवाला बाग के खूनी कांड को आज 100 वर्ष पूरे हो गए हैं। आज ही के दिन 1919 में वैसाखी वाले दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में अंग्रेज जनरल डायर के हुकुम पर चलाई गईग गोली में सैंकड़ों निहत्थे लोगों की मौत हुई थी लेकिन इसकी भूमिका पहले विश्व युद्ध के बाद ही बननी शुरू हो गई थी। हरप्रीत काहलो और आशीया पंजाबी बता रहे हैं कि किस तरह दूसरे विश्व युद्ध की कडिय़ां इस कांड से जुड़ती हैं। 

PunjabKesari

अमृतसर का इतिहास
अमृतसर शहर गुरुओं के चरण स्पर्श प्राप्त धरती है जिसे श्री गुरु रामदास जी ने बसाया। इस शहर की गलियां हर दौर में खूनी इतिहास की गवाह रही हैं। 1919 का अमृतसर अपनी 160000 की आबादी वाला शहर था। यह बड़ा शहर था और व्यापार का बड़ा केंद्र था। सिख, मुसलमान, हिंदुओं की आबादी थी। व्यापार का बड़ा केंद्र होने के कारण व्यापारियों का जमघट रहता था। गंगा-जमुना की धरती से हिंदू व्यापारियों के लिए भी यह मुख्य केंद्र था तथा कश्मीरी व्यापारियों का यहां पूरे का पूरा बड़ा बाजार था। इसके अलावा रेलवे जंक्शन था। पवित्र शहर एवं सजदे होते मनों के शुक्राने की अरदास यहां होती थी। यह पंजाब था तथा पंजाब का शहर अमृतसर था। बैसाखी आने वाली थी और फसलों के शुक्राने के इस त्यौहार के लिए लोगों की भारी भीड़ इकट्ठी होने लगी थी। पर क्या पता था कि घर से निकले  लोग अब कभी घर वापस नहीं पहुंचेंगे। कौन जानता था कि कुछ ऐसा हो जाएगा? 13 अप्रैल काली बैसाखी, काला रविवार और खून से सिंचा इतिहास जो आज भी हमें अंदर से हिला देता है। यह इतिहास के पन्नों का सबसे बड़ा अमानवीय कार्य एवं हैवानियत भरी घटना थी। 100 साल बाद यह समझना बनता है कि उन दिनों की दास्तान क्या थी तथा हमारे मनों में जलियांवाला बाग की घटना को लेकर क्या है जो हम महसूस करते हैं?

PunjabKesari

अप्रैल महीने के वे दिन बहुत सारे हालात एवं मिले-जुले माहौल का नतीजा थे। उन दिनों में अमृतसर में बैसाखी पर इकट्ठी हो रही संगतें भी थीं तथा आजादी की  लड़ाई से जूझते लोग भी थे। उन दिनों पंजाब के हालात पहले विश्व युद्ध से प्रभावित थे। आर्थिकता एवं खेतीबाड़ी, लोगों का सामाजिक जीवन एवं कुदरती आपता का भी असर था। जलियांवाले बाग की घटना समय एवं उससे पहले पंजाब में वह जमीन कैसे तैयार हो रही थी, इसके विस्तार में जाए बिना हम 100 साल बाद जलियांवाले बाग की घटना को समझ नहीं सकेंगे। इस दौरान यह जरूर ध्यान में रहे कि अमृतसर कभी भी मिलिट्री महत्व वाला शहर नहीं था। अंग्रेजों की बड़ी छावनी जालंधर डिवीजन में थी या लाहौर थी। अमृतसर शहर दो हिस्सों  में बंटा नगर था। इसकी पुरानी दीवार की घेरेबंदी में पुरातन शहर था। जिसकी तंग गलियां तथा संकरे बाजार थे। दूसरा, शहर दीवार के बाहर का ब्रिटिश छावनी था। यहां सिर्फ छोटी कोतवाली एवं छोटी बटालियन थी जिसको गैरसीन कहा जाता था। इसमें 184 पैदल फौज एवं 55 घुड़सवार तथा रायल फील्ड आर्टलरी थी। गैरसिन की कमान कैप्टन मैसी के हाथ में थी एवं यह टुकड़ी जालंधर 45 ब्रिगेड को जवाबदेह थी। खैर 100 साल बाद जलियांवाले बाग की घटना इस दौर की असहनशीलता में देश के लिए शहादत पाने वाली मिट्टी की तासीर समझने का भी सबब है। क्योंकि जिन्होंने हमारे लिए शहीदियां प्राप्त कीं, यह महसूस करने की भी आवश्यकता है कि घटना के 100 साल बाद उन शहीदों का भारत कैसाहै?

PunjabKesari

उन दिनों का अफसाना...
पंजाब 1914-1919
(क) पहला विश्व युद्ध : बारूदों के ढेर पर खड़ी दुनिया में बर्तानवी सरकार द्वारा पहले विश्व युद्ध में भारतीय फौजियों को शामिल किया गया। इस युद्ध में 13 लाख भारतीय जवानों ने हिस्सा लिया। इससे बड़ा उन परिवारों के लिए जख्म क्या होगा कि 74000 फौजी जवान वापस नहीं आए। पहले विश्व युद्ध (1914-1918) के लिए पंजाबी युद्ध का सामान बनकर उभरे।  ये फौजी अनपढ़ थे, कम पढ़े-लिखे, गरीब एवं हाशिए पर धकेले हुए थे। पंजाब के अलावा बर्तानवी फौज में शामिल होने वाले नेपाली, उत्तर-पश्चिमी फ्रंटियर तथा सांझा प्रोविन्स का क्षेत्र था। पंजाब का बर्तानवी फौज में शामिल होने का हवाला खुशी एवं गमी दोनों रूप में लोकधारा में भी मिलताहै।

PunjabKesari

इत्थे पावे टुट्टे छित्तर ओथे मिलदे बूट इत्थे खावे रुखी-मिस्सी, ओथे खावे फ्रूट
भरती हो जा वे बाहर खड़े रंगरूट
या यह बोली भी बहुत मशहूर थी:
बसरे दी लाम टुटजे मैं रंडियों सुहागण होवां

PunjabKesari

जर्मन एवं इंगलैंड के बीच की जगह पर सबसे लंबा एवं खूनी युद्ध हुआ था। लाम फ्रैंच का शब्द है जो उर्दू में आया। इसका अर्थ जंग होता है। यहां पंजाब के लोगों का स्वभाव भी समझ में आता है। लड़ाकू स्वभाव, आर्थिकता हर ऐसे आधार पंजाब की सरजमीं पर थे। पहले विश्व युद्ध ने पंजाब की आर्थिकता को बुरी तरह क्षति पहुंचाई थी। इन सबके बावजूद पंजाब बर्तानिया के लिए फौजी ताकत का मजबूत आधार रहा है। इसके साथ यह भी ध्यान रखा जाए कि पंजाब आजादी के लिए संघर्ष करते हुए बर्तानिया के लिए बड़ी चुनौती भी हमेशा रहा है। पंजाब के लोगों का बर्तानवी फौज में क्या आधार था, इसका एहसास इससे भी समझ सकते हैं कि चकवाल पंजाब से 26 वर्षीय खुदाद खान (20 अक्तूबर 1888-8 मार्च 1971) को पहले विश्व युद्ध में विक्टोरिया क्रॉस से नवाजा गया था। खुदाद खान को 31 अक्तूबर 1914 को हैलेबेके बैल्जियम में युद्ध दौरान बहादुरी के लिए यह ईनाम मिला था। पंजाब की बर्तानवी फौज में शमूलियत को इससे भी समझ सकते हैं कि 1916 में (हवाला सर माइकल ओडवायर, इंडिया एस.आई. न्यू इट, 1885-1925) 192000 भारतीयों में से 110000 भरती सिर्फ पंजाब से थी।

PunjabKesari

गदर : गदर लहर (1913-1917-18) ने आजादी का संघर्ष भारत के बाहर बड़ी मजबूती से लड़ा। गदर पार्टी की शुरूआत पहले विश्व युद्ध के समय हुई थी। अमरीका के सैन फ्रांसिस्को में 1913 में गदर पार्टी की नींव रखी गई। अमरीका एवं कनाडा गदर हेतु लड़ाई की जमीन थी। पहले विश्व युद्ध के समय गदर पार्टी ने बर्तानिया की भारतीय फौजी टुकडिय़ों में ‘पूअर पे’ (थोड़ा वेतनमान) के पर्चे बांटे। ये पर्चे बर्लिन में छापे गए तथा जर्मन जहाजों से फ्रांस में जंग दौरान फैंके गए। इन पर्चों का मकसद यह बताना था कि ब्रिटिश हुकूमत फौज में आपके साथ  नस्ल, रंग एवं धर्म के आधार पर कितना भेदभाव करती है। गदर लहर को दबाने के लिए बड़ा संघर्ष करना पड़ा तथा गदर पार्टी से संबंधित देश भक्तों पर देशद्रोह का मुकद्दमा चलाकर फांसियां दी गईं। ऐसी ही एक दास्तान कामागाटा मारू जहाज की है जो बजबज घाट कलकत्ता उतरने पर सरकार द्वारा सजा का हकदार बना।

1916-1917 में राजा महिंद्र प्रताप कुंवर तथा मौलवी बरकतुल्ला ने अपने आप को राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। अब्दुल्ला सिंधी जो इस्लामिक देवबंद स्कूल से थे, गृहमंत्री बन गए। यह बर्तानवी सरकार के खिलाफ जेहाद था। अब्दुल्ला सिंधी के साथ काबुल से वहाबी मुहम्मद हसन थे। इन सभी ने मिलकर ‘खुदा की फौज’ बनाई तथा इस सिलसिले में रेशम के कपड़े पर फारसी में कौम के नाम चिट्ठी लिखी गई ताकि बर्तानिया सरकार के खिलाफ बगावत के लिए क्रांति की जा सके। इतिहास में इसको ‘सिल्क लैटर प्लाट’ कहते हैं। लाहौर, दिल्ली एवं कलकत्ते से सिल्क लैटर साजिश से संबंधित 20 बागियों को पकड़ा गया। यह दिलचस्प है कि अफगानिस्तान के काबुल में जब यह लहर सरगर्म हुई तब ब्रिगेडियर जनरल डायर अफगानिस्तान की सीमा में सेवाएं दे रहा था। 

पंजाब की बर्बाद आर्थिकता  तथा जिंदगी : पंजाब की आर्थिकता ने उस दौर में बर्तानवी सरकार के खिलाफ काफी गुस्सा पैदा किया। इसको ऐसे समझा जा सकता है कि 1 अप्रैल 1917 को सुपर टैक्स, इसी तारीख को 1918 में आमदन टैक्स तथा 1919 में इसी माह प्रॉफिट ड्यूटी टैक्स लगाया। पहले विश्व युद्ध के खर्चों हेतु ऐसे हर साल नए टैक्स से उगाही करते भारत के लोगों का खून चूसा जा रहा था। पंजाब में इसका प्रभाव यह पड़ा कि लाहौर में महंगाई दर 30 प्रतिशत तथा अमृतसर में यही दर 55 प्रतिशत बढ़ गई। इस प्रकार अमृतसर का कपड़ा व्यापार बहुत घाटे में जाता रहा। यही नहीं, उस समय गेहूं 47 प्रतिशत, कपास 310 प्रतिशत, चीनी 68 प्रतिशत, अनाज 93 प्रतिशत की दर से महंगे हो गए। औद्योगिक क्षेत्रों में मंदी एक तरफ पर पंजाब के ग्रामीण क्षेत्र कर्जों की मार के नीचे थे। बीमारियां जन्म ले रही थीं। 1918 की पतझड़ तक 50 लाख भारत की आबादी नजला, जुकाम तथा ऐसी महामारियों की गिरफ्त में थी तथा इनमें से 25 प्रतिशत ग्रामीण आबादी मौत के मुंह में चली गई थी। उस समय बर्बादी एवं कुदरती कहर भी था। पिछले 47 वर्षों में पहली बार मूसलाधार बारिश जोरों पर थी और बर्बाद फसलों ने किसानी कर्जे के नीचे दबा दी थी। 

होम रूल, खिलाफत आंदोलन : होम रूल आंदोलन की स्थापना 1916 में बाल गंगाधर तिलक ने की थी जिसका मुख्य उद्देश्य भारत में स्वायत्तता लेकर आना था। इसके अलावा इस आंदोलन में बड़े व खास नेता एनी बेसैंट, जोसेफ बपटिस्टा, एन.सी. कोल्कर के अलावा मुहम्मद अली जिन्नाह ने खास भूमिका निभाई।दूसरी तरफ विश्व युद्ध के बाद राष्ट्रीय मुस्लिम नेताओं ने ‘खिलाफत आंदोलन’ की शुरूआत की जिसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश राज को उखाड़कर मुस्लिम एकता को कायम करना था।

मार्ले-मिंटो सुधार : एडविन मोटैंग्यू 1917-18 की सर्द ऋतु में भारत आया था। इससे पहले 20 अगस्त 1917 को हाऊस आफ कामन में मोटैंग्यू ने इस बात पर जोर दिया था कि भारत के प्रबंधकीय ढांचे में हमें भारतीयों की शमूलियत में बढ़ौतरी करने की जरूरत है। ब्रिटिश सामराज्य के लिहाज से यह अच्छा होगा कि भारत में भारतीयों की स्वायत्तता वाला शासन प्रबंध हो तथा एक जिम्मेदार सरकार का आधार बने। यह संबोधन भारत में उदारवादी भावना वाला था। अप्रैल 1918 को मोटैंग्यू तथा भारत के वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड ने इसको पेश किया। इतिहास में इसे मार्ले मिंटो सुधार कहते हैं। इन सुधारों में सत्ता प्रबंधन को नए ढंग से लिखने की बात थी। रिपोर्ट के अनुसार स्थानक प्रबंध, स्वास्थ्य एवं शिक्षा में भारतीयों की हिस्सेदारी में बढ़ौतरी करना था तथा सुरक्षा व पुलिस गवर्नर के अधीन रखने की पेशकश थी। इस सुधार में इंडियन सिविल सर्विस में भारतीयों की शमूलियत बढ़ाने की भी बात थी। इस सुधार का विरोध बर्तानिया में भी था तथा पंजाब के गवर्नर सर माइकल ओडवायर ने इस सुधार का तीखा विरोध किया था।

न दलील-न वकील-न अपील
इस एक्ट का विरोध पूरे भारत में बड़े स्तर पर हुआ। इसके तहत पुलिस दो या दो से अधिक व्यक्तियों को गिरफ्तार कर सकती थी। ऐसे शक के आधार पर बिना किसी चेतावनी, वारंट गिरफ्तारी थी। यही नहीं, विवाह समारोहों तथा श्मशानघाट में संस्कार के समय पांच रुपए टैक्स भी लगाया गया। यह कानून किसी को भी बर्तानवी साम्राज्य पर खतरा बताते हुए कत्ल कर सकता था। कानून की ऐसी भावना को उस समय ‘काला कानून’ कहा गया।इस कानून के खिलाफ 30 मार्च को देशव्यापी हड़ताल के साथ सत्याग्रह का आह्वान किया गया।  महात्मा गांधी की आवाज पर लोगों ने इस हड़ताल का समर्थन किया। 30 मार्च के इस आमंत्रण को 6 अप्रैल की तारीख में बदला गया। इस सत्याग्रह के विचार में पेश किया गया था कि 10 मार्च 1919 के इस काले रोलेट कानून ने न्याय तथा मानवीय अधिकारों का भद्दा मजाक उड़ाया है तथा यह कानून आधारभूत अधिकारों का हनन है। सत्याग्रह की इस सौगंध में महात्मा गांधी ने असहयोग का न्यौता देते हुए असहयोग आंदोलन की नींव रखी तथा सत्य के मार्ग पर चलते हुए आजादी का पहला बड़ा अङ्क्षहसा भरपूर आंदोलन  शुरू किया।

दस्तक-महात्मा गांधी तथा जनरल रिजीनाल्ड डायर
रोलेट एक्ट ने जो जमीन तैयार की थी यह भारत के आजादी संघर्ष को बड़ी क्रांति की तरफ लेकर जा रही थी। सिल्क लैटर कॉन्सीपिरैंसी के समय डायर अफगानिस्तान की सरहद में था। कहते हैं कि वह एबटाबाद में ’यादा देर न रह सका। 29 मार्च 1917 को डायर गश्त दौरान घोड़े से गिरने के कारण जख्मी हो गया। इसके बाद ठीक होकर जनरल डायर एबटाबाद से जालंधर आ गया। यह दौर वह भी था कि 1915 में दक्षिणी अफ्रीका से मोहन दास करमचंद गांधी भारत आते हैं। बाल गंगाधर तिलक को वह अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं। उनकी सलाह से वह पूरे भारत में घूमते हैं। इसके बाद रोलेट एक्ट के साथ-साथ इस कानून के विरोध में सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन 1919 पहली बार महात्मा गांधी की बड़ी उपस्थिति थी। उस दौर में एक लड़ाई आजादी के लिए चल रही थी। दूसरा पंजाबी जीवन था जो अपनी बर्बाद आर्थिकता तथा कुदरती आपदा के साथ जूझता हुआ अंदर ही अंदर सुलग रहा था। बर्तानवी हुकूमत के लिए उपरोक्त लहरें बड़ी सिरदर्दी बनी हुई थीं। पंजाब उनके लिए वह जुझारू धरती थी जो उनको हर मोड़ पर ललकारती थी।


वे 13 दिन...
30 मार्च 1919 : महात्मा गांधी के नेतृत्व में सत्याग्रह असहयोग आंदोलन की नींव 24 फरवरी 1919 को रखी गई। 2 मार्च को आंदोलन का मैनीफैस्टो पेश किया गया जो उन दिनों अखबारों में भी प्रकाशित हुआ। इसी क्रम में 30 मार्च को देशव्यापी हड़ताल का आमंत्रण दिया गया। इस दौरान सभी काम, हर दुकान, कार्यालय बंद करने को कहा गया। परन्तु यह हड़ताल 6 अप्रैल को बदल दी गई। 6 अप्रैल तिथि बदलने का समाचार सभी के पास न पहुंच सका तथा बहुत-सी जगहों पर हड़ताल 30 मार्च को हुई। अमृतसर में उस वक्त 25 से 30 हजार लोग एकत्र हुए।

2 अप्रैल 1919 : इस दिन पिछले दो दिनों से भी ज्यादा इकट्ठा हुआ। जलियांवाले बाग में इस इकट्ठ को स्वामी सत्या देव ने संबोधित किया तथा असहयोग सत्याग्रह आंदोलन बारे रोलेट कानून के विरोध में लोगों के समक्ष अपनी बात विस्तार से रखी।  

6 अप्रैल 1919 : इसको लेकर डी.सी. माइल्ज इरविंग ने 5 अप्रैल को बैठक बुलाई ताकि अमृतसर में किसी तरह भी हड़ताल को समर्थन न मिले। इस हड़ताल की अगुवाई स्थानीय नेता डा. सैफुद्दीन किचलू तथा डा. सत्यापाल ने की। 6 अप्रैल को देशव्यापी हड़ताल को भारी समर्थन मिला था। 

Related Story

Trending Topics

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!