कृषि कानूनों के विरोध में गठबंधन टूटा, कांग्रेस की कलह सतह पर, AAP निष्क्रिय

Edited By Vatika,Updated: 07 Oct, 2020 10:05 AM

farmer agriculture ordinance

केंद्र सरकार द्वारा संसद में पारित किए गए कृषि कानूनों के कारण एक तरफ जहां किसान सड़कों पर हैं, वहीं दूसरी तरफ इन कानूनों के कारण अचानक राज्य के सियासी समीकरण भी बदल गए हैं।

जालंधर: केंद्र सरकार द्वारा संसद में पारित किए गए कृषि कानूनों के कारण एक तरफ जहां किसान सड़कों पर हैं, वहीं दूसरी तरफ इन कानूनों के कारण अचानक राज्य के सियासी समीकरण भी बदल गए हैं। इन्हीं कृषि कानूनों के कारण पंजाब में 24 साल पुराना अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी का गठजोड़ टूट चुका है और इस मुद्दे पर दोनों पार्टियों का काडर  जमीन पर पूरी तरह से एक्टिव हो चुका है जबकि दूसरी तरफ इस मुद्दे के विरोध में मैदान में उतरी कांग्रेस की अंदरूनी कलह भी एक बार फिर उभर आई है। अकाली दल, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस इस मुद्दे को लेकर सड़कों पर हैं जबकि आम आदमी पार्टी इस मामले में सक्रिय नहीं दिखाई दे रही। कृषि कानूनों के मुद्दे का पंजाब की सियासत पर पडऩे वाले असर के संबंध में पंजाब केसरी का खास विश्लेषण:-


विरोध प्रदर्शन में भी बिखरी-बिखरी नजर आई कांग्रेस
केंद्र सरकार द्वारा संसद में पारित किए गए कृषि कानूनों को लेकर गरमाई पंजाब की सियासत के बीच कांग्रेस की अंदरूनी कलह भी सतह पर आ गई है। पार्टी के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी ने इन कानूनों के विरोध में राज्य में तीन दिन ट्रैक्टर रैलियां कीं लेकिन इन रैलियों के दौरान पार्टी एकजुटता का पूरी तरह से प्रदर्शन नहीं कर पाई। हालांकि पार्टी के पंजाब मामलों के इंचार्ज हरीश रावत ने पार्टी नेताओं को एकजुट करने की भरपूर कोशिश की और पार्टी से नाराज चल रहे नवजोत सिंह सिद्धू को पार्टी के मंच तक भी ले आए लेकिन सिद्धू ने पार्टी के मंच से जिस तरीके से अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा किया उससे पूरी लीडरशिप की भौंहें तनी हुई हैं। सिद्धू को रैली में लाने के लिए रावत ने उनके साथ लगातार बैठकें कीं और राहुल गांधी के कार्यक्रम को सफल बनाने का हवाला तक दिया गया। हरीश रावत 2 अक्तूबर शाम को पहले सिद्धू के साथ अमृतसर के सर्किट हाऊस में मिले और उसी देर रात उनकी सिद्धू के साथ उनके निवास स्थान पर करीब डेढ़ घंटा बैठक चली। इसके बाद रावत खुद सिद्धू को रैली में शामिल होने के लिए लेने उनके निवास स्थान पर गए और नाश्ता उनके घर पर किया। अमृतसर में पार्टी के दिग्गज नेता और मंत्री होने के बावजूद सिद्धू को अहमियत दी गई लेकिन जब सिद्धू मंच पर आए तो उनके बोल राहुल गांधी से लेकर हरीश रावत तक को निराश कर गए।


सिद्धू के अगले कदम पर नजरें
राहुल गांधी की रैली से पूर्व पंजाब में पार्टी मामलों के इंचार्ज हरीश रावत ने साफ तौर पर कहा था कि नवजोत सिंह सिद्धू राहुल गांधी के कार्यक्रम में शामिल होंगे और उसके बाद भी पार्टी के कार्यक्रमों का हिस्सा रहेंगे लेकिन जिस तरीके से ट्रैक्टर रैली के पहले ही दिन नवजोत सिद्धू को सिर्फ मंच से एक बार बोलने का मौका दिया और दूसरी बार उन्हें माइक से दूर रखा गया उससे सिद्धू खफा बताए जा रहे हैं। इसके बाद वह लगातार दो दिन न तो राहुल गांधी की रैली में शामिल हुए और न ही उन्होंने इस मामले में कोई बयान जारी किया है और पार्टी में उनकी भूमिका को लेकर एक बार फिर से अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। बताया जा रहा है कि जल्द उनकी दिल्ली में राहुल गांधी के साथ मुलाकात होगी और उसके बाद सिद्धू की भविष्य की सियासी रणनीति तय होगी।

बाजवा को मनाने की कवायद
नवजोत सिंह सिद्धू के अलावा पार्टी के सीनियर नेता और रा’यसभा सांसद प्रताप सिंह बाजवा भी पार्टी से नाराज चल रहे हैं लेकिन नाराजगी के बावजूद वह मंगलवार को पार्टी के मंच पर आए और मंझे हुए सियासतदान की तरह रैली में संतुलित भाषण दिया। बाजवा के मंगलवार के सियासी रवैये से उनके लिए पार्टी के भीतर भविष्य के रास्ते खुले रखने में मदद मिलेगी। बताया जा रहा है कि बाजवा के पंजाब की लीडरशिप के साथ कुछ मुद्दों पर मतभेद हैं और पार्टी के पंजाब प्रभारी हरीश रावत ने उन्हें जल्द मतभेदों को सुलझाने का वायदा किया है और उनके आश्वासन के बाद ही वह राहुल गांधी की रैली में मुख्यमंत्री के साथ मंच पर आए। हालांकि रैली में शमशेर सिह दूलो का शामिल न होना अपने आप में सवाल बना हुआ है।  


पंथक सियासत पर लौटेगा अकाली दल
पंजाब में भारतीय जनता पार्टी के साथ मिल कर 3 बार सत्ता में आ चुका अकाली दल भी कृषि कानूनों के सहारे अपनी खोई साख वापस पाने की तैयारी में है। पार्टी ने इन कानूनों को मुद्दा बना भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ा और अब पार्टी अपने पुराने पंथक मुद्दों को धार देने के साथ-साथ कृषि से संबंधित मुद्दों को जोरदार तरीके से उठाने की तैयारी कर रही है। पिछले चुनाव के दौरान पार्टी का पंथक वोट उससे टूट गया था और वह महज 15 सीटों पर सिमट गई थी। लिहाजा  सियासी आक्सीजन हासिल करने के लिए अकाली दल एक बार फिर पुराने कोर मुद्दों पर लौटने की तैयारी में है।  पिछले चुनाव में अकाली दल अपने पंथक गढ़ तरनतारन, खडूर साहिब और पट्टी में भी चुनाव हार गया था और वह फिर से इस खोई हुई जमीन को हासिल करने के लिए पंथक मुद्दों का इस्तेमाल करेगा। पार्टी के कई नेताओं को लगता है कि भाजपा के साथ रहने के कारण वह कई मुद्दों को उतने जोर-शोर से नहीं उठा सकता था लेकिन अब अकेले लडऩे की स्थिति में वह कई पंथक मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद तरीके से जनता के बीच रख सकता है।


पंजाबी भाषा, चंडीगढ़, पानी के मुद्दे भी उठेंगे
अकाली दल अपनी स्थापना के समय से ही रा’यों को अधिक अधिकार देने, चंडीगढ़ पंजाब को देने, पंजाबी भाषा और पंजाब के पानियों के मुद्दे को लेकर काफी मुखर रहा है। हालांकि पंजाब में सत्ता में रहने और केंद्र सरकार में सहयोगी होने के बावजूद वह इन मुद्दों पर कुछ खास नतीजे नहीं दे पाया लेकिन अब भाजपा के साथ गठजोड़ टूटने के बाद पार्टी की रणनीति एक बार फिर किसानी मुद्दों के साथ-साथ इन मुद्दों को उठाने की है। पार्टी को लग रहा है कि इससे पंथक क्षेत्रों में उसके खिलाफ चल रही गुस्से की लहर को शांत करने में मदद मिलेगी।

ढींडसा और सरना गुट चुनौती बने रहेंगे
अकाली दल के नेता हालांकि भाजपा गठबंधन तोडऩे के फैसले को एक मौके के तौर पर देख रहे हैं लेकिन उसके सामने न सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के साथ लडऩे की चुनौती है बल्कि अकाली दल से अलग होकर अलग गुट बनाने वाले सुखदेव सिंह ढींडसा के साथ निपटना भी चुनौती है। इससे अकाली दल के वोटों के विभाजन का खतरा बना रहेगा। इसके अलावा दिल्ली शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी के पूर्व अध्यक्ष परमजीत सिंह सरना के गुट से अकाली दल को धार्मिक व राजनीति के मोर्चे पर अलग से लडऩा होगा। 

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