अकाली-बसपा गठजोड़ बिगाड़ सकता है विरोधी दलों की चुनावी रणनीति

Edited By Vatika,Updated: 24 Jun, 2021 01:55 PM

akali bsp alliance can spoil the electoral strategy of the opposition parties

बीते हफ्ते शिरोमणि अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी के अस्तित्व में आए नए गठजोड़ ने विरोधी दलों के नेताओं

चंडीगढ़ (हरिश्चंद्र): बीते हफ्ते शिरोमणि अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी के अस्तित्व में आए नए गठजोड़ ने विरोधी दलों के नेताओं की परेशानी बढ़ा दी है। दलित वोट बैंक पर एकाधिकार जमाने वाली कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की चिंता भी वाजिब है, क्योंकि कमजोर नेतृत्व व कभी सत्ता की दहलीज के आसपास भी न फटकने वाली बसपा की बजाय दलित वोट उनके खाते में ही जाता था।

बसपा का आधार किसे जिताने में रहा है या यूं कहें कि दोआबा में तूती बोलती थी, लेकिन दो दशक पहले बसपा का नेतृत्व इसे सहेज कर नहीं रख सका। यही वजह रही कि यह वोट बैंक अन्य दलों की ओर झुकाव रखने लगा, जिसमें अक्सर बड़ा हाथ कांग्रेस ने ही मारा है, लेकिन अब अकाली-बसपा गठजोड़ उसकी चुनावी रणनीति बिगाड़ सकता है। दोनों दल अपने-अपने वोट दूसरे को कन्वर्ट करने में कामयाब हो गए तो 25 साल बाद दोबारा बने इस गठबंधन के सत्ता में आने की संभावना बढ़ जाएगी।निश्चय ही इस गठजोड़ के लिए अकाली दल ने ही हाथ बढ़ाया होगा, क्योंकि बसपा ने चार विधानसभा चुनाव के नतीजे देखते हुए कभी पंजाब की सत्ता में आने का सपना भी नहीं देखा होगा। अकाली दल ही है, जो सत्ता सुख भोग चुका है और दोबारा सत्ता में आने को लालायित है। ऐसे में अकाली दल पर गठबंधन धर्म निभाने की जिम्मेदारी भी बढ़ गई है।

दलित वोट की भूमिका रहेगी निर्णायक
दलित वोट पर आगामी विधानसभा चुनाव का सारा दारोमदार रहेगा और यही वोट सत्ता के लिए निर्णायक भूमिका अदा करेगी। इस वर्ग ने सुखबीर बादल के दलित उप मुख्यमंत्री के वायदे पर भरोसा कर गठजोड़ के हक में थोक में मतदान किया तो उन्हें सत्ता में आने से कोई नहीं रोक सकता। कांग्रेस को इस वोट बैंक से ही उम्मीदें थीं और जैसे अकाली-बसपा गठजोड़ ने काम करना शुरू किया है, उससे यह उम्मीदें भी अब धूमिल पडऩे लगी हैं। मगर गठजोड़ के भविष्य को लेकर अभी से कयास भी लगने लगे हैं, क्योंकि गठबंधन में रहते हुए भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल को भी बादल ने पंजाब में एक हद से आगे नहीं बढऩे दिया था, जिसका नेतृत्व केंद्रीय स्तर पर बरसों से मजबूत रहा है। ऐसे में बसपा के भविष्य को लेकर अभी से चर्चा होने लगी है।गठजोड़ की घोषणा के साथ 
ही अकाली दल ने 20 सीटें भी बसपा के लिए छोड़ दी हैं, मगर ज्यादातर शहरी सीटें हैं और इन पर बसपा कैडर न बराबर ही है। दोआबा में तो बसपा के लिए वह गढ़शंकर सीट भी नहीं छोड़ी जो वह जीतती रही थी। ऐसे कुछ सवाल अभी से बसपा में उठने लगे हैं, जिनके जवाब अकाली दल के पास भी नहीं हैं। सुखबीर पर गठबंधन का सारा दारोमदार रहेगा कि वह बसपा नेतृत्व को ऐसा भरोसा दें कि भाजपा जैसा हश्र वह बसपा का नहीं करेंगे।

अक्सर कांग्रेस पर जताया है दलित वर्ग ने भरोसा
117 सदस्यों वाली पंजाब विधानसभा में 34 सीटें आरक्षित हैं। कांग्रेस के 80 विधायकों में से 22 इन्हीं आरक्षित सीटों से जीत कर आए हैं, जो राज्य के अन्य दलों के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं। आम आदमी पार्टी के 18 विधायकों में से 9 दलित वर्ग से हैं। अकाली दल के 14 में से 3 विधायक इस वर्ग से हैं। भाजपा के पास पहले एकमात्र दलित विधायक सोम प्रकाश थे मगर, 2019 में उनके सांसद बनने के बाद यह सीट भी उपचुनाव में कांग्रेस ने छीन ली।
बात लोकसभा की करें तो वहां भी कांग्रेस से तीन सांसद चौ. संतोख सिंह, अमर सिंह और मोहम्मद सदीक हैं, जबकि सोम प्रकाश भाजपा से रिजर्व सीट पर सांसद चुने गए हैं। अकाली दल या आम आदमी पार्टी से कोई दलित सांसद नहीं है। इन बातों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दलित वर्ग के लिए आरक्षित सीटों पर कांग्रेस ही हावी रही है।

गठबंधन का बड़ा फायदा अकाली दल को होगा
बसपा का पंजाब में काफी आधार है, मगर मजबूत नेतृत्व और बेहतरीन टीम की कमी के कारण इसके वोट कांग्रेस की ओर ही खिसक जाते थे। बसपा हर चुनाव लड़ती थी और उसे जो भी वोट पड़े, उसका अकाली दल को सीधे फायदा मिलता था। इस बार आधिकारिक तौर पर अकाली दल का बसपा से गठबंधन हुआ है, जिसका बड़ा फायदा अकाली दल को होगा। देखा जाए तो अकाली-भाजपा गठजोड़ सबसे मजबूत गठजोड़ था और भाजपा की जगह कोई नहीं ले सकता। अकाली दल अगले चुनाव में कई हिंदू उम्मीदवार भी उतारेगा, ताकि भाजपा के हिंदू वोट की कमी को पूरा किया जा सके। सभी जानते हैं कि पंजाब में अकाली दल भाजपा को दबाकर रखता था तो बसपा की भी वह चलने नहीं देंगे जो पहले से ही बहुत कमजोर है। राज्य में जो 32 फीसदी दलित आबादी की बात कहते हैं, वह यह भी ध्यान रखें कि यह 2011 के आंकड़े हैं। दस साल बाद अब यह आबादी 35 प्रतिशत का आंकड़ा पार कर चुकी है।

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