Edited By Updated: 02 Mar, 2017 12:56 AM
दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनाव आखिरकार शिरोम...
नई दिल्ली/चंडीगढ़ः दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनाव आखिरकार शिरोमणि अकाली दल (शिअद-बादल) ने जीत लिए। वर्ष 2013 के चुनावी रिजल्ट को दोहराते हुए अकाली दल ने इतिहास रच दिया। दिल्ली कमेटी के इतिहास में पहली बार पार्टी ने दल के सरप्रस्त प्रकाश सिंह बादल और राष्ट्रीय अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल की अनुपस्थिति में कमेटी के अध्यक्ष मंजीत सिंह जी.के. के नाम पर वोटों की फसल जमकर काटी। लिहाजा, जी.के. के एकमात्र चेहरे के दम पर अकाली दल ने स्पष्ट बहुमत हासिल कर कमेटी पर अपना कब्जा बरकरार रखा। या यूं कह लें कि जी.के. के 4 वर्ष के दौरान किए गए विकास रूपी सुनामी कार्यों के कारण वोटों से ‘बाल्टी’ भर गई है।
शिअद-बादल इस बार का चुनाव अपने राष्ट्रीय नेतृत्व की बजाय प्रदेश नेतृत्व के चेहरे को सामने रखकर लड़ रहा था। अकाली नेतृत्व पंजाब में श्री गुरु ग्रंथ साहिब की हुई बेअदबी तथा डेरा सिरसा द्वारा विधानसभा चुनावों में शिअद-बादल को समर्थन करने के ऐलान के बाद बचाव की मुद्रा में पीछे हट गया था। एकमात्र स्टार प्रचारक के तौर पर जी.के. चुनाव लड़ रहे एक-एक अकाली उम्मीदवार के पक्ष में उतरे। जी.के. के दम पर कमेटी चुनाव लडऩा प्रत्याशियों को भी अपेक्षाकृत आसान तथा सुविधाजनक लगा।
दिल्ली की संगत जी.के. को एक पंथ हितैषी सिख तथा वायदों के पक्के इंसान के तौर पर जानती है। हालांकि, अकाली दल के पास मनजिंद्र सिंह सिरसा के रूप में बड़ा सकारात्मक चेहरा भी था, लेकिन पंजाबी बाग सीट पर कमेटी के पूर्व अध्यक्ष परमजीत सिंह सरना के साथ कड़े मुकाबले में संघर्ष के चलते वह व्यस्त रहे। नतीजतन, सिरसा को दूसरे क्षेत्रों में प्रचार करने का ज्यादा अवसर नहीं मिला। इसी वजह से सभी सीटों पर प्रचार की जिम्मेदारी जी.के. के कंधों पर थी। हालांकि, जी.के. खुद भी अपनी परंपरागत सीट ग्रेटर कैलाश से चुनाव लड़ रहे थे और भारी मतों से जीत हासिल की है।
सिखी, पंथ, पार्टी और सियासत में कद और बढ़ा जी.के. का
बता दें कि जी.के. को 32 वर्ष इस हैसियत तक पहुंचने में लगे और उन्होंने बड़े उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन पंथक सोच को छोड़ा नहीं। यही इनकी सबसे बड़ी दौलत रही। जी.के. ने दिल्ली में पंजाबी को दूसरी भाषा का दर्जा दिलवाने, राष्ट्रीय व अतंराष्ट्रीय मुद्दे, बाहर के सिखों के मामले, 1984 की लड़ाई, बाला साहिब अस्पताल की जमीन को कब्जा दिलवाने में बड़ा काम किया।
इन चीजों ने लोगों के दिलों में मंजीत सिंह का वर्चस्व बढ़ाया लेकिन मंजीत को असली तरक्की 15 नवम्बर, 2012 को एक मीटिंग अटैंड करने रकाबगंज गुरुद्वारा में जाते समय सरना बंधुओं की टास्क फोर्स की तलवारों से हुए हमले के बाद मिली। हमले उपरांत जी.के. सिखों के एक बड़े नेता के रूप में देश और दुनिया के मंच पर आए और रातों-रात तस्वीर ही बदल गई। कुछ दिन बाद जनवरी, 2013 में कमेटी का चुनाव हुआ और 46 में से 37 सीटें अकाली दल के खाते में आईं और मंजीत सिंह प्रधान बने। जी.के. ने अपनी 2013 की जीत को 2017 में भी फिर से दोहराते हुए कमेटी पर जलवा बरकरार रखा। इस जीत से मंजीत सिंह जी.के. का सिख समाज, पार्टी और दिल्ली की सियासत में कद और बढ़ गया।
जानबूझ कर बादलों को बाहर रखा
पिछले कमेटी चुनाव में समूचा अकाली दल, पूरा बादल परिवार, पंजाब सरकार की समूची कैबिनेट और देश-विदेश के अकाली नेता, पंथदर्दी दिल्ली में डेरा डाले रहे। पिछले पूरे चुनाव को एक तरह से पंजाब की सरकार ने लड़ा था लेकिन बदले हालात के चलते दिल्ली कमेटी ने इस बार के चुनाव से बादल परिवार को जानबूझ दूर रखा। बकौल जी.के. पार्टी को डर लग रहा था कि कहीं उनके आने से बना हुआ खेल न बिगड़ जाए क्योंकि विपक्षी सरना दल डेरा और श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी को ही आगे रखकर चुनाव लड़ रहा था।