हे भगवान ! ऐसा दिव्यांग, एक किडनी दान कर बचाना चाहता है एक जिंदगी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 15 Mar, 2018 09:22 AM

save a one life

मैं एक किडनी दान करना चाहता हूं, मेरी इच्छा है कि मैं एक किडनी पर जिंदा रहकर उस चेहरे पर खुशी देख सकूं जिसे मेरी किडनी लगाकर उसकी जान बचाई गई हो। मेरी यह भी इच्छा है कि मेरी आंखें मेरे मरने के बाद जिंदा रहें और दुनियां देख सकें इसके लिए मैंने अपनी...

अमृतसर(स.ह., नवदीप): मैं एक किडनी दान करना चाहता हूं, मेरी इच्छा है कि मैं एक किडनी पर जिंदा रहकर उस चेहरे पर खुशी देख सकूं जिसे मेरी किडनी लगाकर उसकी जान बचाई गई हो। मेरी यह भी इच्छा है कि मेरी आंखें मेरे मरने के बाद जिंदा रहें और दुनियां देख सकें इसके लिए मैंने अपनी दोनों आंखे भी दान कर दी हैं। पिछले 29 सालों से मैं रक्तदान कर रहा हूं। मैं जब 21 वर्ष का था तभी मेरी रीढ़ की हड्डी में चोट लग गई जिससे मैं जिंदगी भर बैसाखी के सहारे रह गया लेकिन मेरा हौसला टूटा नहीं है, मैं सुबह खुद को और मजबूत पाता हूं। उक्त बातें कहते हुए बैसाखी के सहारे चल रहे 51 वर्षीय दिव्यांग भूपिंद्र सिंह अतीत में खो गए। 

‘पंजाब केसरी’ से खास बातचीत में उन्होंने बताया कि उनके पिता स्वर्ण सिंह आरे वाले बहुत मशहूर थे, मां बलबीर कौर से यही शिक्षा मिली कि दूसरों के काम आने वालों को ही इंसान कहते हैं। उन्होंने सोचा कि सबसे बड़ा दान तो रक्तदान है, बस हर 3 महीने बाद वह रक्तदान करने लगे। इसी बीच उनकी शादी कश्मीर कौर से हो गई। सब कुछ बेहतर चल रहा था कि एक दुर्घटना में उसकी रीढ़ की हड्डी में चोट लग गई। थोड़ी देर चुप रहने के बाद नम आंखों से भूपिंद्र सिंह कहने लगे कि उन्होंने इलाज बहुत करवाया लेकिन बैसाखी थामनी पड़ गई। ऑप्रेशन के 3 साल बाद जब वह बैसाखी के सहारे रक्तदान करने गए तो उन्हें खुद महसूस हुआ कि वह बाकियों से इसलिए अलग हैं क्योंकि ऊपर वाले ने उन्हें जिंदगी बचाने के लिए वह रक्त दिया है जिसे दुनिया की कोई ताकत तैयार नहीं कर सकती। 

उन्होंने ठान लिया कि जब तक जिंदगी रहेगी वह रक्तदान करते रहेंगे। परिवार के बारे में भूपिंद्र सिंह ने बताया कि उनके 3 बेटे हैं। बड़ा वरिंद्र सिंह दुबई में कारपेंटर का काम करता है। उससे छोटा गुरजोत सिंह तबलावादक है जबकि सबसे छोटा अमृतपाल सिंह इलैक्ट्रोनिक मैकेनिक है। बता दें, भूपिंद्र सिंह ने अब तक 80 बार रक्तदान करके समाज की आंखें खोल दी हैं। वह अक्सर बैसाखी के सहारे घर से निकलते हैं और रिक्शा या ऑटो रिक्शा से रक्तदान करने के लिए पहुंचते हैं। मोहल्ले के लोग उनके इस हौसले को सलाम करते हैं और वह खुद मानते हैं कि जो भी वह कर रहे हैं उसके पीछे वाहेगुरु जी से मिली प्रेरणा है। 
 

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