Edited By Updated: 29 Dec, 2016 07:32 AM
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने डेरा ब्यास में शीश नवाकर एक बार फिर पंजाब की राजनीति में डेरा फैक्टर की चर्चाओं को गर्म कर दिया है।
चंडीगढ़ (अश्वनी कुमार) : कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने डेरा ब्यास में शीश नवाकर एक बार फिर पंजाब की राजनीति में डेरा फैक्टर की चर्चाओं को गर्म कर दिया है। बेशक, पंजाब के किसी भी डेरा प्रमुख की तरफ से अभी तक सीधे तौर पर किसी सियासी दल के पक्ष में शंखनाद नहीं किया है लेकिन सच यही है कि पंजाब के तमाम सियासी दल इन दिनों ‘धार्मिक गुरुओं’ व ‘डेरों’ के दर पर शीश नवाकर अपनी ‘जीत’ की राह तलाश रहे हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ पंजाब प्रदेशाध्यक्ष कैप्टन अमरेंद्र सिंह की डेरा ब्यास में दस्तक को राजनीतिक विशेषज्ञ इसी नजर से देख रहे हैं।
हालांकि शिरोमणि अकाली दल के सरपरस्त व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल सहित उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल व कैबिनेट मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया सहित आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल भी डेरा ब्यास में शीश नवा चुके हैं। इसी कड़ी में बाबा रणजीत सिंह ढडरियांवाला पर हमले के बाद पंजाब के अमूमन सभी बड़े राजनीतिक दलों ने बाबा ढडरियांवाला से मुलाकात कर उनका कुशल-क्षेम पूछा था। यह पहला मौका नहीं है जब चुनाव से ठीक पहले सियासी दलों की ‘धार्मिक गुरुओं’ व ‘डेरों’ के बीच नजदकियां बढ़ी हैं, इससे पहले भी आमतौर पर चुनाव से पहले सियासी दल धार्मिक-गुरुओं व डेरों की शरण में पहुंचते रहे हैं।
1 9 72- पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय ज्ञानी जैल सिंह ने अपना प्रभाव बढ़ाने और अकाली दल को कमजोर करने के लिए डेरों पर जाना शुरू किया था।
2002-कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने मुख्यमंत्री बनने के बाद ज्ञानी जैल सिंह की नीति को जारी रखते हुए डेरों पर डेरा जमाने का काम शुरू किया।
2007-विधानसभा चुनाव में प्रकाश सिंह बादल अपने पुत्र सुखबीर सिंह बादल के साथ डेरा सिरसा प्रमुख बाबा राम-रहीम के दर पर शीश नवाने गए थे।
2007-विधान सभा चुनाव में कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने मालवा में सबसे ज्यादा प्रभावशाली डेरा सिरसा का समर्थन हासिल किया था और कई सीटों पर जीते थे।
2014-लोकसभा चुनाव के दौरान मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने जालंधर के नजदीक डेरा बाबा लाल नाथ जी के दर पर शीश नवाया था।
डेरे के जरिए जाति वोटबैंक ,एक पंथ दो काज
बेशक, डेरे जाति-पाति से परे हैं लेकिन कायदे से सियासी दल इनके जरिए विशेष जाति के वोट कैश करते हैं। पंजाब में करीब 33 फीसदी वोटबैंक विशेष जाति से ताल्लुक रखता है। पंजाब में ऐसे डेरों की संख्या काफी है, जिनके अनुयायी इसी विशेष जाति से हैं। खासतौर पर, दोआबा क्षेत्र में ऐसे डेरों की काफी संख्या है। इन डेरों के संचालक भी विशेष जाति में अपने प्रभाव को बाखूबी जानते हैं। हाल ही में दोआबा के एक डेरा प्रमुख ने तो आधिकारिक विज्ञप्ति जारी करके कहा था कि कोई भी व्यक्ति या राजनीति दल डेरे के नाम अपने राजनीति लाभ के लिए न करे। जाहिर है कि डेरे को भी अपने राजनीतिक प्रभाव की पूरी समझ है। भाजपा द्वारा हाल ही में हंसराज हंस को पार्टी में शामिल करने की पहल को भी राजनीतिक विशेषज्ञ इसी नजर से देखते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि हंसराज हंस खुद विशेष जाति से ताल्लुक रखते हैं।
पंजाब में हैं हजारों डेरे
पंजाब में डेरों की संख्या 5 से 10 हजार के बीच बताई जाती है। इनमें से 100-200 के लगभग डेरे बड़े हैं। इनमें से कई डेरे तो कई दशकों से चल रहे हैं। इनमें राधास्वामी सत्संग, निरंकारी सिख, डेरा सच्चखंड बल्लां, डेरा सच्चा सौदा, नामधारी, डेरा बाबा रूमी वाले, बाबा भनियारेवाला संप्रदाय, डेरा हंसाली वाले, दिव्य ज्योति जागृति संस्थान, निर्मले, नानक सरिए जैसे प्रमुख डेरे व संप्रदाय शामिल हैं। वहीं, छोटे डेरे पंचायतों से शहरों तक फैले हुए हैं। राजनीतिज्ञों के डेरों में शीश नवाने की परंपरा काफी समय से चली आ रही है। वैसे डेरों के प्रति पंजाब के राजनीतिज्ञों की आस्था का यह आगाज ज्ञानी जैल सिंह के समय से शुरू माना जाता है। पूर्व राष्ट्रपति स्व. ज्ञानी जैल सिंह ने 1972 में मुख्यमंत्री बनने के बाद सिख राजनीति पर अपना प्रभाव बढ़ाने और अकाली दल को कमजोर करने के लिए डेरों पर जाना शुरू किया था। इसके बाद जब 1997 में प्रकाश सिंह बादल मुख्यमंत्री बने, वे भी डेरों पर जाने लगे। 2002 में कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने मुख्यमंत्री बनने के बाद ज्ञानी जैल सिंह की नीति को जारी रखते हुए डेरों पर डेरा जमाने का काम शुरू किया। इसके चलते 2007 के विधानसभा चुनाव में कैप्टन ने मालवा में सबसे ज्यादा प्रभावशाली समझे जाने वाले डेरा सच्चा सौदा का समर्थन हासिल कर मालवा में अकाली दल का समीकरण बिगाड़ दिया।
डेरों के हैं राजनीतिक विंग
प्रदेश में कई बड़े डेरों को अपने राजनीतिक प्रभाव की इतनी समझ है कि उन्होंने राजनीतिक विंग तक गठित किए हैं। यह राजनीतिक विंग विभिन्न सियासी दलों के साथ संपर्क में रहते हैं। वैसे तो डेरे सीधे तौर पर सियासी दलों के समर्थन से परहेज रखते हैं लेकिन अंदरखाते यही राजनीतिक विंग डेरा संचालक या अनुयायियों के साथ बैठक व बातचीत की राह तैयार करते हैं। राजनीतिक विंग किसी डेरा समर्थक को पार्टी में किसी पद या चुनाव में प्रत्याशी के तौर पर घोषित करवाने का काम भी करते हैं या खुद डेरा संचालक की राजनीतिक राह तैयार करवाने की पहल करते हैं। पंजाब में कई ऐसे डेरे हैं, जिनके संचालक या समर्थक विभिन्न सियासी दलों में नेता के पद पर आसीन रह चुके हैं या फिर किसी पद का सुख भोग रहे हैं।
डेरा सिरसा का राजनीति प्रभाव
डेरा सिरसा का भी राजनीति पर प्रभाव किसी से छुपा नहीं है। 2007 में सच्चा सौदा ही था, जिसने विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के हक में समर्थकों से मतदान करने की अपील की थी। इसके चलते मालवा में डेरा के प्रभाव अधीन 65 सीटों में से कांग्रेस को काफी सीटें मिली थीं। यही वजह है कि अमूमन सियासी दलों की निगाहें डेरा सिरसा पर भी टिकी रहती हैं। हालांकि डेरा सिरसा ने भी पंजाब के किसी सियासी दल के समर्थन में आने का ऐलान नहीं किया है।
डेरों को लुभाने की कोशिश
पंजाब विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सत्तासीन सरकार ने विकास के जरिए भी डेरों को लुभाने की पुरजोर कोशिश की है। सरकार ने डेरों के आस-पास के इलाके में विकास को बल दिया है। राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो पिछले कुछ सालों दौरान पंजाब में अमूमन डेरों तक आने वाली सड़कें व डेरों के आस-पास ढांचागत विकास में खासी रफ्तार आई है। जाहिर है कि सरकार अपरोक्ष तरीके से विकास के जरिए डेरों को डोरे डालने की राह पर है। ऐसा इसलिए है कि शिरोमणि अकाली दल पंथक राजनीति तक सीमित रहना चाहती है क्योंकि अगर वह डेरों की तरफ पूरी तरह झुकती है तो यह कट्टरपंथियों के साथ सीधे बैर लेने वाली बात साबित होगी। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान अकाल तख्त के तत्कालीन जत्थेदार ज्ञानी गुरबचन सिंह ने बादल परिवार को डेरा सच्चा सौदा से दूरी बनाए रखने की चेतावनी देकर माहौल गर्मा दिया था। ज्ञानी गुरबचन सिंह ने कहा था कि अगर बादल परिवार का कोई भी सदस्य डेरा सिरसा के दर पर जाता है तो उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। इससे पहले डेरा सिरसा को माफी देने की पहल का शिअद पर विपरीत असर पड़ा था। हालांकि बाद में उसने यू-टर्न ले लिया था।