Edited By Punjab Kesari,Updated: 23 Jun, 2017 01:06 AM
पंजाब पर 25 साल राज करने का सपना देखने वाले अकाली-भाजपा गठबंधन....
जालंधर(खुराना): पंजाब पर 25 साल राज करने का सपना देखने वाले अकाली-भाजपा गठबंधन को इन दिनों लड़ाकू विधायकों की कमी का सामना करना पड़ रहा है जिसका उदाहरण इन दिनों पंजाब विधानसभा में हो रही घटनाओं से मिलता है जहां अकाली-भाजपा समेत तमाम विपक्षी दलों को न केवल सत्ता पक्ष के दमन का शिकार होना पड़ रहा है बल्कि मार्शल्ज तक के हाथों मार खानी पड़ रही है।
राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि पिछले 10 साल पंजाब पर राज करने वाले अकाली-भाजपा गठबंधन को लगभग पूरा समय विवादित नेतृत्व संकट का सामना करना पड़ा। 10 साल के राज में उप-मुख्यमंत्री के रूप में सुखबीर सिंह बादल मुख्यमंत्री जैसी शक्तियों का इस्तेमाल करते रहे परंतु सुखबीर की ही बदौलत अकाली दल के नेतृत्व को चैलेंज का भी सामना करना पड़ा। सबसे पहला चैलेंज अकाली दल को अपने ही घर यानी बादल परिवार से आया और सुखबीर के ताया जी के लड़के मनप्रीत सिंह बादल ने अकाली दल से किनारा कर अपनी पार्टी बना ली और बाद में उसका विलय भी कांग्रेस में कर दिया।
उसके बाद भाजपा को भी वैसा ही करारा झटका मिला जब नवजोत सिंह सिद्धू ने भी सुखबीर बादल से मतभेदों के चलते अकाली-भाजपा गठबंधन को बॉय-बॉय कह दिया। गौरतलब है कि यही नवजोत सिद्धू जब भाजपा में थे तब कांग्रेस पर तीखे तीर चलाया करते थे और अपनी पार्टी को सशक्त नेतृत्व प्रदान कर रहे थे। इसी तरह अमृतसर के तेज-तर्रार विधायक इंद्रबीर सिंह बुलारिया की भी सुखबीर बादल से नहीं बनी और उन्होंने भी कांग्रेस का दामन थाम लिया। पिछले एक साल में ही घटित हुए ऐसे घटनाक्रम कांग्रेस के लिए ब्रह्मस्त्र साबित हुए।
नवजोत सिद्धू, मनप्रीत बादल तथा इंद्रबीर सिंह बुलारिया जैसे तेज-तर्रार व समझदार किस्म के विधायकों के कांग्रेस में आ जाने से इस पार्टी की आक्रामकता में वृद्धि हुई जिसका साफ प्रदर्शन आजकल चंडीगढ़ में देखने को मिल रहा है। वहीं इन विधानसभा चुनावों के दौरान अकाली दल भाजपा के जीते हुए विधायकों की बात करें तो उनमें से सुखबीर व मजीठिया को छोड़ कर कोई ऐसा नेता नहीं जो सत्ता पक्ष के तीरों का सामना करने में सक्षम हो। अजीत सिंह कोहाड़ जैसे नेताओं के वृद्ध हो जाने के चलते भी अकाली दल की धार में निश्चित कमी आई है।
‘आप’ को भी मिल रहा करंट
पिछले कुछ महीनों के दौरान जहां कांग्रेस अकाली-भाजपा गठबंधन पर हावी हुई है वहीं आम आदमी पार्टी चाहे विधानसभा चुनावों में आशातीत प्रदर्शन नहीं कर पाई परंतु फिर भी उसे अपने जीते विधायकों से निरंतर करंट प्राप्त हो रहा है जिसके चलते यह पार्टी विपक्ष की भूमिका में सत्ता पक्ष का मुकाबला करती नजर आ रही है। पिछले समय दौरान ‘आप’ को सुखपाल खैहरा के रूप में सशक्त बुलारा मिला। बैंस ब्रदर्ज के रूप में अच्छी व लड़ाकू मिश्रित छवि वाले नेता मिले तथा अमन अरोड़ा के चलते मालवा क्षेत्र में जनाधार प्राप्त हुआ।
राणा के.पी. को भी फ्री हैंड मिलने से कांग्रेस आक्रामक
चल रहे विधानसभा सत्र के दौरान स्पीकर राणा के.पी. सिंह की भूमिका इन दिनों पूरे राज्य में चर्चा का विषय बनी हुई है। गौरतलब है कि मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह ने अपने करीबी राणा के.पी. सिंह को पूरे अधिकार दे रखे हैं जिनके बल पर वह विधानसभा की कार्रवाई को अपने तरीके से चला रहे हैं। दूसरी ओर देखा जाए तो अकाली दल ने अपने राज के समय में डा. चरणजीत सिंह अटवाल जैसे नेता को स्पीकर बनाए रखा परन्तु उन्हें ऐसी शक्तियां प्राप्त नहीं थीं और कहा जाता है कि उन्हें कोई भी बड़ा फैसला लेने से पहले मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री तथा मजीठिया जैसे नेताओं से परामर्श करना पड़ता था। श्री अटवाल वैसे भी नम्र स्वभाव के नेता रहे हैं जबकि राणा के.पी. की सक्रियता कांग्रेस को परोक्ष रूप से लाभ पहुंचाती दिख रही है।