लोगों में बढ़ा सियासतदानों का विरोध, कर रहे नोटा दबाने की अपील

Edited By Mohit,Updated: 12 May, 2019 10:48 PM

lok sabha election

राजनीतिक दलों और उनके प्रतिनिधियों से नाराजगी व्यक्त करने के लिए "नोटा" एक महत्वपूर्ण विकल्प बनता जा रहा है। अगर किसी मतदाता को चुनाव में कोई उम्मीदवार पसंद नहीं हो तो वे "नोटा" का प्रयोग कर सकते हैं।

खन्ना (सुनील): राजनीतिक दलों और उनके प्रतिनिधियों से नाराजगी व्यक्त करने के लिए "नोटा" एक महत्वपूर्ण विकल्प बनता जा रहा है। अगर किसी मतदाता को चुनाव में कोई उम्मीदवार पसंद नहीं हो तो वे "नोटा" का प्रयोग कर सकते हैं। निर्वाचन आयोग ने ऐसी व्यवस्था की कि वोटिंग प्रणाली में एक ऐसा तंत्र विकसित किया जाए ताकि यह दर्ज हो सके कि कितने फीसदी लोगों ने किसी को भी वोट देना उचित नहीं समझा। यानी अब चुनावों में आपके पास एक और विकल्प होता है कि आप इनमें से कोई नहीं का भी बटन दबा सकते हैं। ईवीएम मशीन में नोटा का गुलाबी बटन होता है। दरअसल,सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में भारतीय निर्वाचन आयोग को चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में इनमें से कोई नहीं यानी नोटा का विकल्प उपलब्ध कराने के निर्देश दिए थे। "नोटा" के कारण लोगों को किसी को भी चयन नहीं करने का अधिकार मिल गया है। राजनीतिक नाराजगी को प्रकट करने के लिए नोटा की लोकप्रियता को कुछ आंकड़ों के द्वारा भी समझा जा सकता है। वर्ष 2014 से 2017 के बीच बिहार में 9.47,पश्चिम बंगाल 8.31,उत्तर प्रदेश 7.57,मध्य प्रदेश 6.43,राजस्थान 5.89,तमिलनाडु 5.62 तथा गुजरात में 5.51 प्रतिशत वोट नोटा को मिले हैं। एससी-एसटी एक्ट में केंद्र सरकार द्वारा संशोधन कर फिर से मूल स्वरूप में किए जाने पर स्वर्ण समुदाय के लोगों में नाराजगी दिख रही है। वे लोग भी अपनी नाराजगी प्रकट करने के लिए नोटा की बात कर रहे हैं। मध्य प्रदेश के बाद अब राजस्थान में भी नोटा ने बीजेपी और कांग्रेस को असहज कर दिया है।

इसलिए जनता पसंद कर रही है नोटा का इस्तेमाल? 
हरियाणा में तो 5 नगर निगमों और दो नगर पालिकाओं के चुनाव में राज्य चुनाव आयोग ने नोटा को पहली बार काल्पनिक उम्मीदवार का दर्जा दे दिया है। इसका आशय है कि यदि नोटा को मिलने वाला वोट किसी भी प्रत्याशी से अधिक होगा तो संबंधित वॉर्ड अथवा शहर के पूरे इलेक्शन को रद्द कर दिया जाएगा और नए सिरे से चुनाव होंगे। दूसरी बार होने वाले चुनाव में पहले लड़ चुके उम्मीदवार चुनाव लडऩे के लिए अपात्र घोषित हो जाएंगे। नेताओं द्वारा बार-बार दलीय निष्ठा बदलने से भी लोगों में नेताओं के प्रति उदासीनता आई है। वर्ष 2014 में जब कांग्रेस के प्रति देश में आक्रोश चरम स्तर पर था, तब भी कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता बीजेपी में शामिल होकर सांसद बन गए। अभी चल रहे विधानसभा सभा चुनावों में भी जब नेताओं को अपने दल से टिकट नहीं मिला,तो उन्होंने दूसरे दलों से टिकट ले लिया। स्पष्ट है कि जनता समझ रही है कि प्राय: नेता  किसी भी तरह से केवल शक्ति प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं, दलीय विचारधारा एवं निष्ठा से उनका कोई संबंध नहीं है। दरअसल, चुनाव के समय राजनीतिक दल आश्वासनों का अंबार खड़ा कर देते हैं, लेकिन कार्यकाल समाप्त होने के बाद उनमें से चंद ही पूरा कर पाते हैं। उदाहरण के लिए 2011 में संपूर्ण देश में 'लोकपाल विधेयक' के लिए लोग सडक़ पर आ गए थे।

लोगों के दबाव में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम अवधि में जनदबाव में एक अत्यंत कमजोर लोकपाल कानून पारित किया, लेकिन उस कमजोर लोकपाल की भी नियुक्ति नहीं की। लोकपाल आंदोलन को तत्कालीन विपक्षी पार्टी भाजपा का जोरदार समर्थन प्राप्त था। लेकिन सत्ता में आने के बाद अब तक देश को लोकपाल नहीं मिल पाया है, जबकि इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार सरकार को 'लोकपाल' नियुक्त करने आदेश दिए हैं। इस तरह भारी जन इच्छाओं के बावजूद आज तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हुई है। इससे स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार के मामले पर राजनीतिक दलों के दावे अत्यंत खोखले हैं। इसी तरह महिला आरक्षण संविधान संशोधन विधेयक को कांग्रेस और बीजेपी दोनों का समर्थन प्राप्त है। यह बिल प्रथम बार 1996 में पेश किया गया था और 2010 में राज्य सभा में पारित हो गया था, लेकिन आज तक लोकसभा में पारित नहीं हुआ है। अगर कांग्रेस और बीजेपी दोनों इस मामले पर गंभीर होते,तो यह बिल कब का पारित हो चुका होता। स्पष्ट है कि राजनीतिक दलों का महिलाओं के प्रति भी कथनी और करनी में भारी अंतर है। महिलाओं के लिए आखिर ये राजनीतिक दल अपनी दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति कब प्रदर्शित करेंगे, इसका देश इंतजार कर रहा है। इसी प्रकार किसानों के समस्याओं को लेकर भी सभी सरकारों का रूख संवेदनहीन रहा है। यूपीए शासन में भी किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर थे और आज भी यह बदस्तूर जारी है। किसान बार-बार आंदोलन करते हैं, लेकिन उन्हें केवल आश्वासान से ही संतुष्ट होना पड़ता है। 

नैतिक मूल्यों का पतन 
प्रत्येक राजनीतिक पार्टी  स्वयं को नैतिक मापदंडों पर भी खरा दिखाना चाहती है, लेकिन मूलत: उनके नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है। इस संदर्भ में मैं दो घटनाओं का उदाहरण सामने रखना चाहूंगा। वर्ष 1999 में अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार 1 वोट से गिर गई थी। उस समय कांग्रेस के उड़ीसा के मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग भी लोकसभा में बीजेपी सरकार के विरुद्ध वोट देने के लिए आ गए थे। बीजेपी ने इसका काफी विरोध किया था। भारतीय संविधान के अनुसार मुख्यमंत्री को पद ग्रहण करने के 6 माह के भीतर राज्य विधानमंडल की सदस्यता लेनी होती है। मुख्यमंत्री का विधान मंडल सदस्यता से पूर्व तक सांसद बने रहना मूलत: संघीय ढांचे का उल्लंघन है। संविधान के अंतर्गत अगर कोई सांसद मुख्यमंत्री बनता है, तो उसे तत्काल संसद सदस्यता से त्याग पत्र देने का कोई प्रावधान नहीं है। संभवत: हमारे संविधान निर्माताओं ने इस स्थिति की कल्पना नहीं की थी।

अत: संविधान के इसी खामी का प्रयोग कर 1999 में उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग ने लोकसभा में सरकार के विरुद्ध मतदान में भाग लिया। अब हमलोग 2017 की एक घटना देख लेते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी राष्ट्रपति चुनाव तक सांसद बने रहे। दोनों ने ही राष्ट्रपति चुनाव में सांसद के रूप में मतदान भी किया। इस तरह 1999 में कांग्रेस ने जहां राजनीतिक नैतिकता एवं शुचिता का उल्लंघन किया,वहीं 2017 में बीजेपी ने। चुनाव प्रचार में जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोपों की भाषा लगातार गिर रही है,उससे भी जनता में निराशा व्याप्त है। देश में गरीबी हटाओं का जो नारा 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बुलंद किया था,वह आज भी एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। लोकतंत्र को बचाने के लिए आवश्यक है कि राजनीतिक दल अब पुन: जनता के विश्वासों पर खरे उतरे। राजनीतिक प्रतिनिधियों की यह जिम्मेदारी है कि वे गरीबी,बेरोजगारी, किसानों के आत्महत्या जैसी समस्याओं का समुचित योजनाबद्ध समाधान करे तथा शिक्षा,स्वास्थ्य ,आधारभूत संरचना जैसी मूलभूत सुविधाएं प्रत्येक नागरिक को उपलब्ध कराएं। इसके साथ ही राजनीतिक नेतृत्व उच्च नैतिक मापदंडों को स्थापित कर ही जनता के ह्रदय में पुन: स्थान बना पाएंगे,अन्यथा धीरे-धीरे राजनीति के प्रति लोगों के निराशा में और वृद्धि ही होगी,जो "नोटा" को तो लोकप्रिय बनाएगा, परंतु राष्ट्रहित में नहीं होगा।  

वादा खिलाफी कारण कर चुके बायकाट का ऐलान  
नुमाईदों के विरोध के साथ साथ हलका खन्ना के ही कई स्थलों पर राजनीतिक पार्टियों से परेशान जनता वोटों का बायकाट करने का एैलान कर चुकी है। रेलवे लाईन पार इलाका वासियों के साथ साथ वार्ड नंबर 17 में जनता द्वारा रोष प्रदर्शन कर चुनावों का बायकाट करने का ऐलान किया गया। इसके साथ साथ कई अन्य जगहों पर जनता चुनावी बायकाट करने का एैलान कर चुकी है। नोटा के प्रयोग से सियासी समीकरण बदलेंगे। आम देखने को मिल रहा है लोग इस बार नोटा का प्रयोग करने की अपील कर रहे हैं।
 

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