Edited By Updated: 16 Mar, 2017 11:44 AM
पंजाब में भाजपा के नेता चुनाव परिणाम आने से पहले तक इस कदर दावे कर रहे थे कि वर्कर को साफ लग रहा था
जालंधरः पंजाब में भाजपा के नेता चुनाव परिणाम आने से पहले तक इस कदर दावे कर रहे थे कि वर्कर को साफ लग रहा था कि पार्टी पंजाब में तीसरी बार अकाली दल के साथ मिल कर सरकार बना लेगी लेकिन पंजाब में पार्टी की हालत जो हुई वह सबने देखी। 23 में से 3 सीटें ही पार्टी जीत पाई। इस सबके पीछे एक बड़ा कारण है और वह है पार्टी में मिस मैनेजमैंट और मैनेजमैंट चाहे चुनाव लडऩे की तरीकों की हो या फिर राज्य के राजनीतिक माहौल को समझने की। पंजाब में भाजपा ने चुनाव लड़ा तो सही लेकिन पार्टी राज्य में न तो वोटर की तथा न ही वर्कर की नब्ज समझ नहीं सकी। राज्य में वर्ष 2017 में चुनाव होने थे लेकिन पार्टी ने ठीक 8 महीने पहले विजय सांपला को पंजाब भाजपा की कमान सौंप दी। पार्टी ने कमान तो शायद यह सोच कर सौंपी थी कि पार्टी राज्य में दलित वोट बैंक में सेंध लगा लेगी लेकिन सांपला तथा उनके करीबी लोगों ने ऐसे प्रयास ही नहीं किए कि पंजाब में भाजपा मजबूत हो सके।
दलित सीटों पर नहीं पड़ा प्रभाव
पंजाब में सांपला को भाजपा की कमान देने का मुख्य कारण था रविदासिया वर्ग के वोट में सेंध लगाना। प्रदेश में इस मजबूत दलित वोट बैंक के लिए भाजपा ने जो प्रयास किया वह व्यर्थ रहा। प्रदेश में 117 में से 35 सीटें आरक्षित हैं जिनमें से भाजपा के कोटे में केवल 5 सीटें हैं। इन 5 में से भी भाजपा ने 3 सीटें वर्ष 2012 के चुनावों में जीती थीं। इस बार के चुनावों में वह आंकड़ा भी कम हो गया तथा आरक्षित कोटे की केवल 2 सीटें भाजपा जीत सकी।
सांपला के साम्राज्य में दलित का दुश्मन दलित
पंजाब में भाजपा ने दलित वोट बैंक को आकॢषत करने के लिए दलित नेता व केंद्रीय मंत्री विजय सांपला को प्रदेश की कमान सौंपी लेकिन दलित समुदाय के लोग आपस में ही उलझ गए। जालंधर वैस्ट तथा फगवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में भगत चूनी लाल और सोमप्रकाश के साथ सांपला के संबंध पहले ही खराब थे। इन संबंधों को सांपला संवार नहीं पाए। वह इस सीट पर अपने लोगों को टिकट दिलवाने के लिए जोर लगाते रहे जिस कारण खटास और बढ़ गई। सांपला के नेतृत्व में दलित राजनीति में भाजपा सफल होने के सपने देख रही थी लेकिन इसके उलट दलित भाजपा से दूर हो गए।
कांग्रेस खेमे में लौट गए दलित
पंजाब में दलित वर्ग के वोट बैंक पर अक्सर कांग्रेस का दबदबा रहा है। पिछले कुछ समय से अन्य दल दलित वोट बैंक में सेंध लगाने में जुटे हुए थे। पंजाब में वर्ष 1992 के चुनावों में वह अंतिम दौर था जब बसपा ने दलित वोट बैंक से 6 सीटें जीतीं। उसके बाद से पंजाब में बसपा की जगह कांग्रेस तथा अकाली दल ने ले ली। अब तक इन दलित सीटों के लिए दोनों दलों में खींचतान होती रही है। कभी अकाली दल भारी तो कभी कांग्रेस। वर्ष 2012 के चुनावों में अकाली दल ने दलित वोट बैंक के माध्यम से पंजाब की सत्ता दोबारा जीतने की सफल कोशिश की थी।
सोशल मीडिया पर ही सरगर्म रही भाजपा
पंजाब में भाजपा ने जीत के लिए सोशल मीडिया पर जोर तो बहुत लगाया लेकिन पार्टी जीत नहीं सकी। पार्टी ने लाखों रुपए खर्च कर वार रूम तैयार किया था जिसमें कागजी व कम्प्यूटरों पर खूब आंकड़े इधर से उधर भेजे जा रहे थे। पार्टी के राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय नेता भी वार रूम की तैयारी देख कर हैरान थे लेकिन असलियत यह थी कि जमीनी स्तर पर कुछ नहीं था। न तो वर्कर साथ चल रहा था तथा न ही वर्कर का जमीर।
मोदी के अतिरिक्त कुछ नहीं था बताने को
पंजाब में भाजपा, उसके प्रत्याशियों व वर्करों के पास वोटर को बताने के लिए कुछ भी नहीं था। जिसने भी भाजपा से वोट मांगने का आधार मांगा तो वह सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात करने लगती थी। इतना ही नहीं पार्टी को मोदी से नीचे पंजाब में कुछ नजर नहीं आ रहा था और तो और विकास की बात भी की जाती तो आंकड़े केंद्र सरकार के बताए जा रहे थे।
‘आप’ में ही व्यस्त रहे भाजपा व शिअद
पंजाब में भाजपा व शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के लोग इस बार के चुनावों में अपनी राजनीति करने की बजाय आम आदमी पार्टी की राजनीति में ही व्यस्त रहे। भाजपा के लोग भी पंजाब में कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने की बजाय ‘आप’ के खिलाफ प्रचार करते रहे। वही काम अकाली दल ने भी किया। अकाली दल भी ‘आप’ को लेकर अधिक सक्रिय था जबकि कांग्रेस को हल्के में लिया जाता रहा जिस कारण पंजाब में दलित वर्ग का काफी वोट बैंक जो अकाली दल व भाजपा से टूटा था वह कांग्रेस के साथ-साथ ‘आप’ में चला गया।