Edited By Punjab Kesari,Updated: 10 Oct, 2017 11:58 AM
डाक विभाग की अहमियत वर्तमान पीढ़ी शायद ही समझे, क्योंकि मोबाइल, एस.एम.एस., कोरियर और इंटरनैट ने संदेशों का आदान-प्रदान तो आसान कर दिया मगर इंतजार और रोमांच का वो लम्हा छीन लिया जिसका कभी लोग बेसब्री से इंतजार किया करते थे।
होशियारपुर(अमरेन्द्र): डाक विभाग की अहमियत वर्तमान पीढ़ी शायद ही समझे, क्योंकि मोबाइल, एस.एम.एस., कोरियर और इंटरनैट ने संदेशों का आदान-प्रदान तो आसान कर दिया मगर इंतजार और रोमांच का वो लम्हा छीन लिया जिसका कभी लोग बेसब्री से इंतजार किया करते थे।
चिट्ठी लिखने की प्रवृत्ति के साथ ही संवेदनाएं हुई खत्म
चिट्ठियों का दौर खत्म होने से लोगों के अंदर लिखने की प्रवृत्ति खत्म हो गई है। आज की पीढ़ी लिखना नहीं जानती। कम से कम चिट्ठियों की वजह से लोगों के अंदर लिखने की तो आदत थी। फेसबुक, व्हाट्सएप के जमाने में हमारे अंदर का धैर्य खत्म हो रहा है। नई तकनीक के आने से जमाना जरूर तेज हो गया है। एक फोन घुमाया और जहां चाहे बात कर ली। वह दौर धीमा जरूर था लेकिन लोगों के अंदर संवेदनाएं तो थीं जो अब खत्म हो गई हैं।
1774 में कोलकाता में स्थापित हुआ था पहला डाकघर
ब्रिटिश हुकूमत के दौर में शुरू हुई भारतीय डाक सेवा ने 1 अक्तूबर 2004 को ही अपने सफर के 150 वर्ष पूरे कर लिए। अपने देश में 1766 में लार्ड क्लाइव ने पहली बार डाक व्यवस्था स्थापित की थी, फिर 1774 में वॉरेन हेस्टिंग्स ने कोलकाता (पुराना नाम कलकत्ता) में प्रथम डाकघर स्थापित किया था। हमारे देश में सन् 1852 में चिट्ठी पर डाक टिकट लगाने की शुरूआत हुई। महारानी विक्टोरिया के चित्र वाला डाक टिकट 1 अक्तूबर 1854 को जारी किया गया तथा इसी दिन डाक विभाग की स्थापना हुई।
धीरे-धीरे परिपक्व होते थे चिट्ठियों के जमाने में रिश्ते
चिट्ठियों के उस दौर की बात ही अलग हुआ करती थी। चिट्ठियों में भाव और भाषा का संगम हुआ करता था। पत्र लिखते समय हम संवेदनाओं की गहराई में उतरते थे। पत्रों के उस जमाने में जीवन में रस था जो अब खत्म हो गया है। चिट्ठियों के जमाने में रिश्ते धीरे-धीरे परिपक्व होते थे। उनमें संवेदनाएं होती थीं। उस दौर में जीवन में इतनी नकारात्मकता नहीं थी। आज की तरह हालात नहीं थे कि किसी के प्रति मन में आवेश आया और फोन उठाकर भड़ास निकाल दी।
पत्रों के जरिए होता था भाषा सौंदर्य का विकास
उस दौर में पत्र लिखने की कला श्रेष्ठ मानी जाती थी। पत्र लिखना सिर्फ कुशल-क्षेम जानने का माध्यम नहीं था बल्कि पत्रों के जरिए भाषा के सौंदर्य का विकास होता था। पत्र लिखते हुए हमारे अंदर संवेदनाओं का जन्म होता था। साहित्य में रुचि रखने वाले लोग पत्र के माध्यम से भी अपनी भावनाओं को शब्द देते थे। प्रेमी-प्रेमिका ही नहीं बल्कि पत्नियां भी चि_ी के सहारे ही कई-कई महीने अपनों से दूर रह लेती थीं। डाकियों को तो लोग देवदूत माना करते थे।
विछोह की पीड़ा को पत्र ही करते थे शांत
उस जमाने में भले ही एक-दूसरे का कुशलक्षेम जानने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता था लेकिन उस जमाने की एक अलग रूमानियत थी। माता-पिता को पत्र लिखते समय आंसू से पन्ने भींग जाते थे। जब भी घर से पत्र आया करता था धड़कनें बढ़ जाया करती थीं। विछोह की पीड़ा को पत्र पढ़कर ही शांत करते थे।
डाकिए की साइकिल की घंटी सुनते ही खिल जाती थीं बांछें
गौरतलब है कि हर साल 9 अक्तूबर को वर्ल्ड पोस्टल-डे मनाया जाता है। उस जमाने में बड़े चाव से प्रियजनों के पत्र का इंतजार रहता था। डाकिए की साइकिल की घंटी सुनते ही बांछें खिल जाती थीं। सभी लोग डाकिए से मिलने के लिए दौड़ पड़ते थे। कई बार तो सबसे पहले चिट्ठी पढ़ने के लिए छीना-झपटी भी हुआ करती थी। लंबे इंतजार के बाद चिट्ठी में लिखे एक-एक शब्द को पढ़कर जो आनंद महसूस होता था, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। प्रियजनों की सिर्फ चिट्ठी नहीं, उसमें उनका लिपटा प्यार भी आता था।