एडवायर का गुणगान कर रहे थे अपने,‘बागी फिरंगी’ ने नाक में दम किया

Edited By swetha,Updated: 13 Apr, 2019 11:26 AM

jallianwala bagh massacre

सत्य को जानने व खोजने की चाहत मनुष्य की स्वाभाविक आदत है। सत्य की तलाश ने ही मनुष्य के इतिहास के कई पुरातन तथ्यों को शक के दायरे में पहुंचाया है। हिन्दुस्तान की आजादी के संघर्ष के साथ जुड़े कई ऐतिहासिक पन्ने आज भी निष्पक्ष खोज की प्रतीक्षा कर रहे...

अमृतसरःसत्य को जानने व खोजने की चाहत मनुष्य की स्वाभाविक आदत है। सत्य की तलाश ने ही मनुष्य के इतिहास के कई पुरातन तथ्यों को शक के दायरे में पहुंचाया है। हिन्दुस्तान की आजादी के संघर्ष के साथ जुड़े कई ऐतिहासिक पन्ने आज भी निष्पक्ष खोज की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसे ही पन्नों में जलियांवाला बाग कांड का एक ऐसा सत्य भी है जिसे जानने की कोशिश नहीं की गई। सत्य तक पहुंचने की स्वाभाविक चाहत ने ही मुझे एक ऐसे सफर पर चलने का उस वक्त मौका मिला जब मैंने पाकिस्तानी पंजाबी अदीब नैन सुख की किताब ‘आई पुरे दी वा’ की कहानी ‘कम्मवाली’ पढऩी शुरू की थी। यह कहानी पाकिस्तानी रेडियो, टी.वी. व फिल्मी आर्टिस्ट आलिया बेगम के बारे में थी जिसने अपना सफर कामवाली से घरवाली और फिर घरवाली से कामवाली तक न जाने कितनी बार तय किया।

पर मेरा सारा ध्यान कहानी के अंदर अविभाजित भारत के साथ संबंधित उन तथ्यों की तरफ था जिनके बारे में भारतीय इतिहासकार या तो अनजान थे या राजनीतिक कारणों के कारण आज तक चुप रहे। कहानी की नायिका आलिया बेगम की बड़ी बहन बशीर बेगम की शादी लाहौर के एक आनरेरी मैजिस्ट्रेट असलम बेग के साथ हुई थी। तुर्की पृष्ठभूमि का दिखावा करने वाला यह जज चोरी-छिपे इंडियन नैशनल कांग्रेस के राजनीतिक कैदियों की जेल में मदद करता था और उनकी जमानतें करवाता था और गंगाधर के नाम से अंग्रेज सरकार के खिलाफ तीखे लेख भी लिखता था। मिलाप अखबार के कार्यालय से ही इस जज के खिलाफ मुखबिरी हुई और जब तक खुफिया पुलिस गंगाधर को पकडऩे उनकी हवेली पहुंचती तब तक असलम बेग अपनी बीवी और साली के साथ फरार हो गया। यह तीनों छिपते-छिपाते लाहौर से मुलतान, हैदराबाद, सिंध, मीरपुर खास, जोधपुर व पालमपुर होते हुए अहमदाबाद पहुंचे। अगले सफर के लिए इनके पास पैसे न होने के कारण वह लावारिसों की तरह स्टेशन पर बैठे थे और उन्हें एक कुली अब्दुल रहमान ने सहारा दिया। 

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इस मुलाकात के दौरान असलम बेग को पता लगा कि अब्दुल रहमान असल में जेम्स विलियम मैसी है। अंग्रेजी फौज की फस्र्ट गैरीसन बटालियन का यह आयरिश अफसर किसी वक्त अमृतसर का कमांडिंग अफसर हुआ करता था। इसी अफसर ने 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग में रोलेट एक्ट का शांतिपूर्वक विरोध कर रहे लोगों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया था। इस ना-फरमानी के कारण उसे कोर्ट मार्शल का सामना करना पड़ा और कैद होने के बाद वह फरार हो गया और भेष बदल कर अंग्रेजों के काफिलों को लूटता और भारत के स्वतंत्रता सेनानियों की मदद करता। यही उसके जीवन का मकसद हो गया था। 

आज जलियांवाला बाग कांड के 100 साल पूरे होने के मौके मैसी के प्रति मेरा सिर सम्मान व श्रद्धा के साथ झुक रहा है। लेकिन यह भी हैरानीजनक बात है कि जलियांवाला बाग में सैंकड़ों निहत्थे लोगों को मारने वाले जनरल डायर को 30 अप्रैल, 1919 के दिन सिरोपा देने वाले आरूड़ सिंह के बारे में तो हमारे पास जानकारी है लेकिन उस कत्लोगारत का भागीदार बनने से इंकार करने वाले मैसी के बारे में हमारे पास एक भी शब्द नहीं है। इस बारे जब ज्यादा जानकारी हासिल करने की कोशिश की तो धीरे-धीरे अन्य तथ्य भी सामने आने शुरू हो गए। 

उस समय पंजाब के लैफ्टिनैंट गवर्नर माइकल एडवायर ने ब्रिगेडियर जनरल रैगीनल डायर का चुनाव अन्य सीनियर अफसरों को नजरअंदाज करके किया था। 10 अप्रैल, 1919 को डा. सैफुद्दीन किचलू व डा. सत्यपाल की रिहाई को लेकर अमृतसर के डिप्टी कमिश्रर माइल्स इरविन को मिलने के लिए हाल बाजार की तरफ से सिविल लाइंस की तरफ जा रही भीड़ व फौज के दरमियान झड़प हो गई थी। हिंसा की इन घटनाओं के कारण शाम 4 बजे अमृतसर का चार्ज मेजर मैक्डोनाल्ड को सौंपना पड़ा था। निगेल कोलेट की किताब ‘बुच्चर ऑफ अमृतसर’ में दर्ज कैप्टन मैसी के लिखित बयान में कहा गया है कि अमृतसर के हालात उस समय शांत थे और इन तथ्यों की पुष्टि भी मेजर मैक्डोनाल्ड ही करते हैं, पर ओडवायर शायद कुछ और ही सोच रहे थे। 

11 अप्रैल को मेजर मैक्डोनाल्ड से चार्ज लेकर 124 ब्लोच बटालियन के कर्नल मोर्गन को चार्ज दिया गया क्योंकि मैक्डोनाल्ड वह सब करने से झिझक रहा था, जो अंग्रेज सरकार करना चाहती थी। मोर्गन के पहुंचने से पहले जनरल डायर 16वीं डिवीजन (लाहौर) के मेजर जनरल सर बैनियन का टैलीग्राफिक आर्डर लेकर अमृतसर का चार्ज संभालने पहुंच गया और 13 अप्रैल वाले दिन 54वीं सिख रैजीमैंट, गिने-चुने नेपाली, गोरखे, ब्लोच व पठान जवानों को साथ लेकर जलियांवाला बाग के मुख्य मार्ग पर मोर्चा संभाल लिया। असल में एडवायर जनरल डायर के जरिए यह संदेश देना चाहता था कि ब्रिटिश हकूमत अपनी इच्छा के मुताबिक जहां चाहे, जो चाहे कर सकती है। डर की भावना को खौफ में तबदील करने के लिए ही उसने भीड़ पर वाॄनग दिए बिना 50 जवानों को गोली चलाने का कई बार हुक्म दिया। उस दौरान 10 से लेकर 15 मिनट तक गोलियां चलीं और इस गोलीबारी में सैंकड़ों निहत्थे लोग मारे गए। 

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जलियांवाला बाग कांड के बाद पंजाब के कई जिलों में मार्शल लॉ लगा दिया गया और इस गोलीकांड की जांच के लिए बनाए गए हंटर कमीशन की रिपोर्ट में लिखा गया कि जलियांवाला बाग में 1650 राऊंड फायर किए गए। इसमें 379 लोगों की मौत हुई और 1200 के करीब जख्मी हुए। गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मृतकों की संख्या इससे कहीं ज्यादा थी क्योंकि लोगों ने डर के मारे अपने लापता पारिवारिकमैम्बरों के नाम भी लिखवाए थे और सरकार ने जून, 1919 तक लगाए गए मार्शल लॉ की आड़ में काफी प्रमाण खुर्द-बुर्द भी कर दिए। अंग्रेजों द्वारा दहशत को बनाए रखने के लिए की गई ऐसी घिनौनी कोशिशों का लम्बा इतिहास मौजूद थे। फरवरी 1692 में 38 स्कॉटिश हायरलैंडर्स और अक्तूबर 1865 में जमैका में 439 बागियों का कत्ल किया गया था। डबलिन में 21 नवम्बर, 1920 को आयरिश फुटबाल मैच खेल रहे निहत्थे लोगों पर की गई गोलीबारी में भी 32 लोगों की मौत हुई थी। 

जब मैंने अतीत के पन्ने खोलने की कोशिश की तो जोगिन्द्र सिंह की पुस्तक ‘1919 का पंजाब’ हाथ लगी, उसमें ओडवायर की रिटायरमैंट के मौके पर मजीठिया सरदार द्वारा अपनी वफादारी दिखाने के लिए ओडवायर की शान में पढ़े गए शब्द मिल गए। मजीठिया ने लिखा था कि ‘‘यह अफसोस की बात है कि कुछ बुरे इरादे वाले लोगों की तरफ से इस धरती के अमन को तबाह करने के लिए शरारती कोशिशें की गईं और कई स्थानों पर ऐसी जालिमाना हरकतें की गईं जिससे राज्य के पवित्र नाम को धब्बा लगा, पर हजूर ने हालात पर सख्ती से काबू पाकर ठीक तरीके से अपना काम करके इस बुराई का खात्मा कर दिया।’’ 

 

मजीठिया सरदार के अलावा 27 सिख, 24 मुसलमान व 42 हिन्दू जवान बहादुर व खान बहादुरों के नाम भी मिलते हैं जिन्होंने ओडवायर की तारीफों के पुल बांधे। इतिहास की किताबों में आरूड़ सिंह और मजीठिया द्वारा किए गए ओडवायर के गुणगान का जिक्र तो मिलता है लेकिन मैसी की ब्रिटिश सरकार विरोधी कारनामों को दर्शाने वाली कहानी का कहीं कोई जिक्र नहीं है। बागी फिरंगी का यह किस्सा कैप्टन मैसी की पत्नी आलिया बेगम को उस समय मिला जब वह भारत के विभाजन के बाद लाहौर पहुंचीं। कैप्टन मैसी के साथ शादी के चलते आलिया बेगम को पाकिस्तानी पंजाब में सम्मान की नजर से देखा जाता था। इसकी पुष्टि आलिया बेगम के चौथे शौहर के जरिए पैदा हुए पुत्र मुअज्जम शेख भी करते हैं। कैप्टन मैसी संबंधी जो अन्य जानकारी मिलती है, उसकी सच्चाई की पुष्टि करने को तथ्य मौजूद नहीं हैं। ब्रिटिश नौकरी से फारिग होने के बाद उसने फस्र्ट बहावलपुर इंफैंट्री में नौकरी की और कर्नल के तौर पर रिटायर हुए। मैसी द्वारा इस्लाम धर्म कबूल किए जाने के चलते उसे और उसकी पत्नी को डेरा नवाब साहिब के आर्मी कब्रिस्तान में दफनाया गया और उसकी याद में रावलपिंडी में एक गेट की भी स्थापना की गई परंतु आलिया बेगम की इंटरव्यू कर चुके नैनसुख इस सारी जानकारी को महज दंतकथा जितनी अहमियत देते हैं और इम्पोरियम गैजेटियर एवं बहावलपुर का सरकारी गजट इस तथ्य की पुष्टि नहीं करते। जलियांवाला बाग कांड के इस अधूरे पन्ने ‘बागी फिरंगी’ के तथ्यों की असल कहानी का आज भी इंतजार है ताकि दोनों पंजाबों के लोग उस फिरंगी दोस्त की फिरंगी सरकार के साथ निभाई गई दुश्मनी के प्रति जागरूक हो सकें। 

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डा. सैफुद्दीन किचलू और उनके योगदान को अमृतसर 1947 के विभाजन के बाद भूल गया। विभाजन के दौरान धरती के दो टुकड़े हो गए। अब डा. किचलू को देखने वाली आंख मुसलमान देख रही थी। हैवानियत का यह दौर कहता था कि कौन सा किचलू और कौन सा देशवासी। जलियांवाला बाग के वह नायक जिन्होंने हिन्दू-मुसलमानों की एकता की बात की थी, आज हमलों का सामना कर रहे थे। उस समय के साम्प्रदायिक हवा के जुनूनियों ने अमृतसर के कचहरी रोड स्थित उनकी कोठी को घेर लिया। हथियारबंद जुनूनियों से किचलू को बचाने के लिए मेघ सिंह, सूबा सिंह, कोट धर्मचंद, कामरेड ज्ञान सिंह छज्जलवड्डी आगे आए और उन्होंने डा. किचलू और उनके परिवार को हिफाजत के साथ दिल्ली पहुंचाया जहां से वह नए देश पाकिस्तान के लिए रवाना हुए। अमृतसर की इन गलियों का यह दौर आखिर डा. किचलू किस तरह याद कर रहे होंगे। जलियांवाला बाग कांड के लिए पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडवायर और जनरल डायर जिम्मेदार थे। लिहाजा इन दोनों व्यक्तियों से बदलालिए बिना पंजाब के लोगों और स्वतंत्रता सेनानियों के खून की गर्मी ठंडी नहीं हो रही थी। घटना के 21 साल बाद सुनाम के निवासी ऊधम सिंह ने लंदन के कैकस्टन हाल में 13 मार्च, 1940 को माइकल ओडवायर की गोलियां मारकर  हत्या कर दी और जलियांवाला बाग कांड का बदला लिया। 14 मार्च, 1940 को डेली  मेल में यह खबर थी कि मोहम्मद सिंह  आजाद नाम के भारतीय व्यक्ति ने ओडवायर का कत्ल कर दिया। 

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