तो क्या 26 करोड़ से ज्यादा किसान तय करेंगे एनडीए और यूपीए का भविष्य?

Edited By Suraj Thakur,Updated: 17 May, 2019 10:40 AM

so will 26 million farmers decide the future of the nda and the upa

देश में करीब 14.72 करोड़ किसान हैं, खेतिहर मजदूरों की संख्या मिलाकर ये आंकड़ा 26 करोड से ज्यादा है।

जालंधर। (सूरज ठाकुर) लोकसभा चुनाव के छह चरण पूरे हो चुके हैं। सातवें चरण के चुनाव प्रचार अब सियासी दल में वोट देने का इशारा ज्यादा और जीत के दावे ज्यादा कर रहे हैं। पीएम मोदी चुनावी सवेक्षणों को लेकर गदगद है और भाषणों में कह रहे हैं कि हम 300 से ज्यादा सीटों पर काबिज हो जाएंगे। उधर कांग्रेस की बात करें तो राहुल गांधी कह रहे हैं युद्ध समाप्त हो चुका है। उनका भी दावा है मोदी सत्ता से बाहर जा रहे हैं। सर्वे जो भी हों, दावे कुछ भी हों, पर आपको यहां बताना जरूरी है कि देश के 26 करोड़ से ज्यादा किसानों और खेतिहर मजदूरों का रुख राजनीतिक दलों के प्रति क्या रहा होगा। देश का किसान बहुत ही संकट से गुजर रहा है वह अब तक छह चरणों के चुनाव में अपने दर्द के साथ मतदान कर चुका है, जो अब ईवीएम मशीन में बंद है। सातवें चरण के चुनाव में भी यही वर्ग अहम भूमिका निभाने वाला है। ऐसे में एनडीए के दावों के मुताबिक वह 300 के करीब सीटें हासिल कर सरकार बनाती है तो जाहिर है इसमें सर्वाधिक योगदान किसानों व ग्रामीण आबादी के वोट बैंक का ही रहेगा। इस हिसाब से यूपीए गठबंधन का भविष्य भी किसानों के वोट बैंक पर काफी हद तक टिका हुआ है। आरोप है किसानों को लेकर भी मोदी सरकार पर ऐसे आंकड़ों को दबाने की कोशिश की गई जो सत्ता दोबारा हासिल करने बाधक थे। इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि चुनाव किसानों के मुद्दे पर भी चुनाव आधारित रहा। चुनावों में किसानों को प्रलोभन आजादी के कई दशक बीत जाने के बाद लोलीपोप के रूप में दिए जाते रहे। इस बार भी भाजपा ने संकल्प पत्र में 2022 आते-आते किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादे पर वोट मांगे हैं। जबकि कांग्रेस ने भी किसानों के लिए एक अलग बजट लाने के वादे और उन पर कर्ज अदायगी न करने पर आपराधिक मामले नहीं बनाने के वादे पर चुनाव लड़ा है।

क्या कहते हैं आंकड़े

देश में करीब 14.72 करोड़ किसान हैं, खेतिहर मजदूरों की संख्या मिलाकर ये आंकड़ा 26 करोड से ज्यादा है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 34 किसान और खेतिहर मजदूर आत्महत्या करते हैं। एनसीआरबी के मुताबिक वर्ष 2015 में 8,007 किसान और 4,595 खेतिहर मजदूरों ने कर्ज के कारण आत्महत्या की। जबकि 2016-17 के आंकड़े पेश ही नहीं किए गए। 2 मई 2017 में एक केस के सिलसिले में मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट में आंकड़े पेश करने पड़े। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी कि वर्ष 2013 से औसतन हर साल 12,000 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इस सबके बावजूद पीएम मोदी और कांग्रेस दोनों ही सत्ता की राह देख रहे हैं। जबकि आंकड़े कांग्रेस के कार्यकाल से मोदी के कार्यकाल तक कोर्ट में पेश किए गए। 16 अगस्त 2018 को नाबार्ड की अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वेक्षण (एनएएफआईएस) रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत में 48 प्रतिशत परिवार ही कृषि परिवार हैं। रिपोर्ट के मुताबिक देश के आधे से ज्यादा कृषि परिवार कर्ज के दायरे में हैं और हर एक व्यक्ति पर औसतन एक लाख से ज्यादा का कर्ज है। 

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ये रिपोर्ट

अगर आंकड़ों पर नजर दौड़ाई जाए तो पिछले चार वर्षों में किसानों की आय में 0.4 फीसदी ही बढ़ोतरी हुई है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएसओ) की पिछली रिपोर्ट 2012-13 के मुताबिक किसान की मासिक आमदनी 6426 रुपए है, जबकि ये आमदनी 2002-03 में महज 2115 रुपए महीना थी। एनएसएसओ हर 10 साल पर किसानों की आमदनी पर सांकेतिक सर्वे करता है। अगला सर्वे 2022-23 में होना है। राजनीतिक दल किसानों की हालत सुधारने की बात करते हैं। किसानों की बात की जाए तो वे खुद बताते हैं कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले सोयाबीन 5,000-6,000 रुपए प्रति कुंतल बिक रही थी, बाद में 2,200 रुपए में बेचनी पड़ा। वहीं, लहसुन साल 2015 में 15,000 रुपए प्रति कुंतल बिका था, 2018 में 200 रुपए तक बचना पड़ा। प्याज, चना, सरसों, मेथी, मसूर, ईसबगोल सबके दाम आधे रह गए हैं। चार साल के किसान आंदोलनों की बात करें तो पीएम मोदी ने किसान संगठनों के मन की बात नहीं सुनी उन्हें सिर्फ मन की बात सुनाते रहे। विपक्ष के पास किसानों के हितों के लिए चिल्लाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। बहरहाल चुनावी नतीजे आने तक इस बात का अंदाजा लगाना मुमकिन नहीं हैं की देश के किसानों ने किसी की सत्ता को निमंत्रण दिया है। 

 

 

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