अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में न कोई ‘मित्र’ होता है और न ‘दुश्मन’

Edited By Punjab Kesari,Updated: 26 Sep, 2017 11:05 PM

there is no friend in international politics and neither enemy

हिन्दी -चीनी भाई-भाई’ के नारे लगाने वाले चीन ने 1962 में अचानक भारत पर आक्रमण कर दिया....

‘हिन्दी -चीनी भाई-भाई’ के नारे लगाने वाले चीन ने 1962 में अचानक भारत पर आक्रमण कर दिया और एक दोस्त की पीठ में छुरा घोंपकर घटिया दर्जे का विश्वासघाती होने का सबूत दिया। इस लड़ाई से चीन ने भारत की 15 हजार किलोमीटर जगह पर कब्जा कर लिया। 

भारत के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू इस लड़ाई से इतने हताश हो गए कि 27 मई, 1964 में दुनिया को अलविदा कह गए। इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक आदर्शवाद को भी सदा-सदा के लिए दफन कर दिया गया। लाल बहादुर शास्त्री स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमन्त्री बने परन्तु उनका कार्यकाल बड़ी चुनौतियों, परेशानियों और कठिनाइयों से भरपूर रहा। दूसरी तरफ  पाकिस्तान के फौजी हुक्मरानों ने प्रजातन्त्र को कुचल कर सैनिक शासन की स्थापना कर ली थी। पाकिस्तान ने आॢथक, राजनीतिक, कूटनीतिक और सैनिक शक्ति हासिल करने के लिए सीटो सैन्टो और कई अन्य फौजी गठबंधनों से संबंध स्थापित कर लिए थे। 

अमरीका से भी उनके संबंध घनिष्ठ होते जा रहे थे। चीन से भी मुश्किल के दौर में सहायता पाने तथा भारत पर दबाव बनाने के लिए पाकिस्तान ने 1947 में भारत से छीना हुआ कश्मीर का कुछ पूर्वी हिस्सा चीन को दे दिया जिस पर आज भी चीन का कब्जा है। पाकिस्तान के फौजी हुक्मरानों ने भारत-चीन युद्ध से उत्पन्न हुई स्थितियों का नाजायज फायदा उठाने के लिए भारत की सैन्य शक्ति को टटोलना शुरू कर दिया। जनरल अयूब खान की यह राय थी कि भारत अधिक देर तक फौजी दबाव को बर्दाश्त नहीं कर सकेगा और वह अपने निर्धारित लक्ष्य में कामयाबी हासिल कर सकेंगे। जुल्फिकार अली भुट्टो उस समय पाकिस्तान के एक बड़े महत्वाकांक्षी विदेश मन्त्री थे और वह कश्मीर में अल्जीरिया की तरह बगावत करवाकर आगे बढऩा चाहते थे। 

हकीकत में ऑप्रेशन जिब्राल्टर भुट्टो के ही दिमाग की उपज थी और पाकिस्तान ने अपने 33 हजार के करीब फौजियों को कश्मीरियों का लिबास पहनाकर जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ करवा दी, जिनका मकसद पूरी तरह अव्यवस्था और अराजकता फैलाना था परन्तु इससे पहले भारत की सैन्य शक्ति की वास्तविक स्थिति को जानने के लिए उन्होंने मई 1964  में रन आफ  कच्छ में कंजरकोट पर कब्जा कर लिया। भारत ने इसे वापस लेने के लिए ऑप्रेशन कबड्डी चलाया। जून 1965  में इंगलैंड के प्रधानमन्त्री विल्सन और अन्य विश्व नेताओं के सुझाव पर दोनों देशों में युद्धबंदी हो गई और ट्रिब्यूनल के फैसले के मुताबिक पाकिस्तान को 350 वर्ग मील जमीन दी गई। 

पाकिस्तान का ऑप्रेशन जिब्राल्टर बुरी तरह असफल हो गया क्योंकि कश्मीरियों ने ही इन घुसपैठियों की खबर सरकार को दी। भारत की जबरदस्त सैनिक कार्रवाई के सामने पाकिस्तानी फौज टिक नहीं सकी। परन्तु उन्हें टिथवाल, उड़ी और पुंछ में कुछ कामयाबी मिली। पाकिस्तान ने जम्मू से कश्मीर को अलग-थलग करने के लिए ऑप्रेशन ग्रैंड-स्लैम चलाया ताकि अखनूर पर कब्जा कर सके परन्तु भारत की फौजी शक्ति, विशेष करके एयरफोर्स द्वारा भारी बमबारी ने पाकिस्तान के मंसूबों पर पानी फेर दिया। पाकिस्तान के हुक्मरानों की यह सोच थी कि भारत केवल जम्मू-कश्मीर में ही लड़ाई करेगा, अन्य किसी सीमा पर उन्हें युद्ध होने की आशा नहीं थी परन्तु प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के दबाव को कम करने के लिए वैस्टर्न कमांड को पंजाब की तरफ  से हमला करने की खुली छूट दे दी। 

भारत के इस आक्रमण से अयूब खान और मूसा खान के पांवों तले जमीन खिसकने लगी। घमासान लड़ाई के दौरान अयूब खान भारत के खिलाफ चीन से फौजी सहायता लेने के लिए चीन के सदर माओ त्से तुंग को मिले। उसने यह कहकर अयूब खान को टाल दिया कि यदि परमाणु युद्ध छिड़ गया तो निशाना पीकिंग होगा न कि रावलपिंडी। यह उत्तर सुनते ही अयूब खान का सहायता पाने का सपना चकनाचूर हो गया और वह एक मायूस आशिक की तरह रावलपिंडी लौट आया। दूसरी तरफ  रूसी प्रधानमंत्री कौसी जिन ने भारत सरकार को संदेश भेजा कि यदि चीन पाकिस्तान की सहायता के लिए भारत पर आक्रमण करता है तो उस हालत में रूस  खुलकर भारत का समर्थन करेगा। भारत ने पूर्वी पाकिस्तान के साथ यथास्थिति का अनुसरण किया और भारत-चीन सीमा पर भी सेना तैनात कर दी ताकि चीन की दखलअंदाजी को भी रोका जा सके। 

पाकिस्तान ने खेमकरण सैक्टर में बेशुमार पैटन टैंकों की सहायता से कब्जा कर लिया परन्तु आसल उताड़ में उसके 97 टैंकों को पूरी तरह तबाह कर दिया गया। इसी स्थान पर अब्दुल हमीद ने 3 टैंकों को तबाह कर दिया, चौथे को भी जबरदस्त क्षति पहुंचाने के बाद आप शहादत का जाम पी गया। खेमकरण में पाकिस्तान के दबाव के कारण जनरल चौधरी ने  अमृतसर खाली करने के लिए कहा, जिस पर वैस्टर्न कमांड के कमांडर इन चीफ जनरल हरबख्श सिंह ने पाकिस्तान पर जबरदस्त हमला कर दिया। भारत की फौज शाम के समय लाहौर के नजदीक इच्छो गिल नहर के पास पहुंच गई और इच्छो गिल के पार बाटापुर पर भी कब्जा कर लिया, जिस पर यू.एन.ओ. ने सुझाव दिया कि भारत पाकिस्तान को लाहौर खाली करने का मौका दे। 

दूसरी तरफ  जनरल मनमोहन सिंह ने जबरदस्त जीत हासिल की और भारतीय सेना स्यालकोट सैक्टर में भी प्रवेश कर गई और राजस्थान में मुनाबाओ तक पहुंच गई। जनरल प्रसाद फौज के साथ लाहौर के दरवाजे पर खड़ा हो गया। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह (पंजाब के वर्तमान मुख्यमंत्री) 1965 के युद्ध में जनरल हरबख्श सिंह के ए.डी.सी. थे। उन्होंने जनरल साहिब के बारे में लिखा है, वह मुश्किल से मुश्किल दौर में भी कभी डावांडोल नहीं हुए। मार्शल आफ  द एयर फोर्स अर्जन सिंह का योगदान भी भारतीय इतिहास में सुनहरी अक्षरों में लिखा जाएगा। 

हिन्द समाचार पत्र समूह के स्वर्गीय सम्पादक एवं स्वतन्त्रता सेनानी लाला जगत नारायण ने इस युद्ध के दौरान अपने लेखों और प्रभावित क्षेत्रों में लगातार दौरे करके लोगों को उत्साहित किया। इस लड़ाई के दौरान सभी भारतीय मजहबों-मिल्लत से ऊपर उठकर चट्टान की तरह खड़े हो गए। जिस स्थान से सैनिक गुजरते थे हजारों लोग उनके अभिनंदन के लिए तैयार होते थे। गजब का जोशो-खरोश देखने को मिलता था। जब लाल बहादुर शास्त्री ने वायु सेना से कार्रवाई करने के लिए कहा तो ठीक 35 मिनट के बाद भारतीय वायु सेना ने पाकिस्तान पर जोरदार हमले करके उसके कई हवाई अड्डे बुरी तरह तबाह कर दिए। इस तरह पाकिस्तान पूरी तरह हिल गया। 22 दिनों की इस लड़ाई में भारत ने हाजी पीर और कारगिल की कुछ पहाडिय़ों समेत 1920 किलोमीटर इलाके पर कब्जा कर लिया, जबकि पाकिस्तान ने भारत में 540 किलोमीटर पर कब्जा कर लिया। 

भारत के पास पुराने हाकर हंटर, नैट्स, वैम्पायर, कैनबरा और मिग-21 विमान थे। इनमें से अधिकतर सैकेंड वल्र्ड वार के जमाने के थे। पाकिस्तान के पास सैबर, स्टार फाइटर, कैनबरा और अन्य विमान थे। ये सारे नई टैक्नोलॉजी से निर्मित थे। भारत के पास ओल्ड सैन्चुरियन एम.के.-7 स्टुअर्ट लाइट टैंक्स और कुछ अन्य आऊट डेटिड टैंक थे, जबकि पाकिस्तान के पास पैटन एम 48 और शर्मन टैंक थे। जब पाकिस्तान को अमरीका ने पैटन टैंक दिए तो यह कहा था कि इन टैंकों को जहां भी ले जाना चाहें, इनका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, जबकि भारतीय सेना ने इन अजेय टैंकों को आसल उताड़ में सबसे बड़े कब्रिस्तान में बदल दिया। 

1964 में भारत के रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण अमरीका से एफ-104 स्टार फाइटर हासिल करने के लिए रक्षा सैक्रेटरी मैक नमारा से मिले। उसने नई तकनीक के जैट तो नहीं दिए बल्कि भारत के दूसरे विश्व युद्ध के जहाजों और टैंकों पर मखौल के लहजे में कहा, ये तो सब कबाडिय़ों की दुकान पर रखने वाले हैं परन्तु पाकिस्तान को अमरीका ने एफ-104 और एफ-86 बड़ी संख्या में सैबर जैट मुफ्त में ही दे दिए। इससे भारत के प्रति अमरीकी रवैये का पूरी तरह पता चल जाता है। 5 सितम्बर से 20 सितम्बर तक भारत के शूरवीर सैनिक स्यालकोट और लाहौर के दरवाजों पर मजबूती से कब्जा करके शेरों की तरह दहाड़ रहे थे। टैंकों, तोपों और हवाई बम्बारमैंट आसमानी बिजली से भी तेज गडग़ड़ाहट कर रही थी। 

समूचा पाकिस्तान मुर्गी के चूजों की तरह सहम गया था। अयूब खान लड़ाई बंद करवाने के लिए अमरीका और इंगलैंड से गुहार कर रहा था, जबकि लाल बहादुर शास्त्री इन दोनों इलाकों पर कब्जा करके पाकिस्तान को सबक सिखाना चाहते थे। इसी दौरान जब शास्त्री जी ने जनरल चौधरी से लड़ाई जारी रखने के बारे में पूछा तो उसने उत्तर दिया कि भारत के पास केवल 10 प्रतिशत असला रह गया है, जबकि हकीकत में भारत के पास अभी भी 80 प्रतिशत असला था और पाकिस्तान का 80 प्रतिशत असला खत्म हो चुका था। यदि जंग जारी रखी जाती तो पाकिस्तान भारत के आगे घुटने टेक देता परन्तु जनरल चौधरी डिप्रैशन के गंभीर रोग से ग्रस्त था और मामूली-सी बात पर हतोत्साहित हो जाता था। उसकी गलतबयानी से भारत ने 23 सितम्बर, 1965 को लड़ाई बंद करने का ऐलान कर दिया। 

भारत के मित्र रूस ने दोनों देशों में सुलह करवाने की जिम्मेदारी ले ली। शास्त्री जी ने देश को तथा सैनिकों को यह विश्वास दिलाया कि वह अनगिनत कुर्बानियां देकर जीते गए इलाकों को वापस नहीं करेंगे परन्तु 10 जनवरी, 1966 को ताशकंद में हुए समझौते से सभी जीते हुए इलाके, विशेष कर हाजी पीर दर्रा वापस करने पड़े। ये सब कुछ विश्व नेताओं के दबाव और भारत-पाकिस्तान में अच्छे संबंध बनाने के लिए किया गया परन्तु इस पर भारत में बड़ी सख्त  प्रतिक्रिया होने लगी। 11 जनवरी, 1966 को रात के डेढ़ बजे भारत के लाल, लाल बहादुर शास्त्री दिल का दौरा पडऩे से सदा के लिए जुदा हो गए।

भारतीय सैनिकों ने तो जान पर खेलकर युद्ध जीत लिया परन्तु टेबल पर समझौते के समय हमने जीती हुई बाजी हार दी। यह भारतीयों की हजारों साल पुरानी कमजोरी है। भारत ने 1948, 1965, 1971 और 1999 में समझौते के समय हर बार एक गलती को दोहराया। इतिहास साक्षी है कि भारत को सुसंगठित, सुसज्जित और सुदृढ़ सेना की कमी के कारण सदियों तक गुलामी झेलनी पड़ी और कत्लोगारत का सामना करना पड़ा। कमजोर राष्ट्र शक्तिशाली राष्ट्र का मुकाबला करने में हमेशा असमर्थ होते हैं। भारत को हर क्षेत्र में ताकतवर बनाना होगा ताकि हम आर्थिक तौर पर भी मजबूत हों और हमारी फौजी ताकत का भी दुनिया लोहा माने क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में न तो किसी का कोई शाश्वत मित्र होता है, न दुश्मन। मित्र और दुश्मन आवश्यकतानुसार बदलते रहते हैं।

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