Edited By Punjab Kesari,Updated: 22 Sep, 2017 01:51 AM
पैट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान बहुत अधिक राजनीतिक दबाव में हैं। उन्हें पैट्रोल और डीजल के परचून मूल्यों में कमी करने को...
पैट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान बहुत अधिक राजनीतिक दबाव में हैं। उन्हें पैट्रोल और डीजल के परचून मूल्यों में कमी करने को कहा जा रहा है। गौरतलब है कि इनके मूल्य उस स्तर तक ऊंचे चढ़ गए हैं जहां वे 3 वर्ष से कुछ अधिक पूर्व थे जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें आज की तुलना में दोगुनी ऊंची थीं।
प्रधान ने यह कहते हुए इन सभी दबावों का विरोध किया है कि वह परचून मूल्य निर्धारण में हस्तक्षेप नहीं कर सकते क्योंकि ये मूल्य बाजार के उतार-चढ़ाव के साथ जोड़े जा चुके हैं। लेकिन इसके बावजूद यह बात भी कोई कम राहत पहुंचाने वाली नहीं कि प्रधान इस अवसर का लाभ उठाते हुए दृढ़ता से कह रहे हैं कि पैट्रोल और डीजल पर भी जी.एस.टी. लागू किया जाए। अब देखना यह है कि ये सुझाव कितने व्यावहारिक हैं?
अंतर्राष्ट्रीय बाजारों से भारत द्वारा खरीदे जाने वाले कच्चे तेल की कीमतों ने 2014 से ही नीचे सरकना शुरू कर दिया था। मई, 2014 में प्रति बैरल कच्चे तेल की कीमत 107 डालर थी। लेकिन जनवरी 2016 तक यह लुढ़कती-लुढ़कती 28 डालर तक आ गई थी। उसके बाद इसने फिर से ऊपर उठना शुरू कर दिया और सितम्बर 2017 तक कीमतें 55 डालर प्रति बैरल पर पहुंच गई थीं। इसी के अनुरूप डीजल की परचून कीमतें भीं दिल्ली में जनवरी 2016 में 22 प्रतिशत गिरावट दर्ज करते हुए 44.18 रुपए प्रति लीटर पर आ गई थीं जबकि मई 2014 में यह आंकड़ा 56.71 रुपए था। दिल्ली में पैट्रोल की कीमतें भी इसी अवधि के दौरान 71.41 रुपए से 17 प्रतिशत फिसल कर 59.35 रुपए पर आ गई थीं।
स्पष्ट है कि डीजल और पैट्रोल की कीमतों में यह गिरावट कच्चे तेल की कीमतों में आई 74 प्रतिशत गिरावट की तुलना में बहुत ही कम थी। ऐसा मुख्य रूप में इसलिए हुआ था क्योंकि केन्द्र सरकार ने नरम पड़ती कच्चे तेल की कीमतों के परिप्रेक्ष्य में लाभ का बहुत बड़ा हिस्सा अपनी जेब में डाल लिया था। क्योंकि इसने मई 2014 से लेकर जनवरी 2016 के बीच पैट्रोल और डीजल पर 11 बार राजस्व शुल्क में वृद्धि की थी। पैट्रोल के मामले में राजस्व शुल्क में 127 प्रतिशत बढ़ौतरी हुई जबकि डीजल के मामले में यह 387 प्रतिशत थी। स्मरण रहे कि इन दोनों उत्पादों पर राज्यों द्वारा भी बिक्री कर तथा वैट लगाया जाता है और 2016-17 दौरान उन्होंने भी इन दोनों उत्पादों पर प्रादेशिक टैक्स में 16 प्रतिशत वृद्धि की जबकि इससे पूर्व वर्ष में यह वृद्धि 4 प्रतिशत थी। इन शुल्कों के फलस्वरूप दिल्ली प्रदेश की डीजल और पैट्रोल शुल्कों से राजस्व आमदन में 14 प्रतिशत बढ़ौतरी हुई।
लेकिन अप्रैल 2017 में कच्चे तेल की कीमतें उछल कर 52 डालर प्रति बैरल पर पहुंच गईं जोकि जनवरी 2016 की तुलना में 86 प्रतिशत अधिक थीं। तब पैट्रोल और डीजल के परचून मूल्य भी बढ़ाने पड़े लेकिन यह वृद्धि क्रमश: 11 और 24 प्रतिशत थी जोकि कच्चे तेल की कीमतों में हुई बढ़ौतरी की तुलना में काफी कम थी। सितम्बर 2017 में जब कच्चे तेल की कीमतें अप्रैल 2017 की तुलना में 6 प्रतिशत और बढ़ गईं तो पैट्रोल व डीजल की कीमतों में भी 7 प्रतिशत की वृद्धि करनी पड़ी। इस अवधि दौरान टैक्सों में कोई बदलाव नहीं हुआ। वास्तव में तो इन दोनों उत्पादों पर टैक्स जनवरी 2016 से एक ही स्तर पर टिका हुआ है।
वर्तमान बेचैनी का असली कारण जुलाई 2014 और जनवरी 2016 के बीच पैट्रोलियम उत्पादों पर लगाया गया टैक्स है जिसके फलस्वरूप वैट और राजस्व कर की वसूली 2016-17 में बढ़कर 4 लाख करोड़ हो गई। इसमें से केन्द्र ने 2.4 लाख करोड़ की वसूली की जबकि शेष 1.6 लाख करोड़ की वसूली राज्यों ने की। अब चूंकि राज्यों को केन्द्रीय राजस्व में 42 प्रतिशत की हिस्सेदारी हासिल है तो पैट्रोलियम उत्पादों से उनकी कुल टैक्स वसूली 2.6 लाख करोड़ रुपए हो गई जबकि केन्द्र की हिस्सेदारी सिमट कर 1.4 लाख करोड़ पर आ गई। ऐसे में यदि टैक्सों में कटौती की जाती है तो सबसे बड़ा नुक्सान राज्यों को होगा।
टैक्स बढ़ाने के फैसले को इस आधार पर न्यायोचित ठहराया गया था कि सरकारों को अपने-अपने वित्तीय घाटे में कमी लाने की जरूरत है और तेल कम्पनियों को भी उनके सभी उत्पादों पर बढ़ती ‘अंडर रिकवरी’ के बोझ से बचाना होगा। वास्तव में वित्तीय घाटों पर लगाम कसी गई तो कई और तेल कम्पनियों की ‘अंडर रिकवरी’ भी अपने आप नीचे आ गई। इसके साथ ही तेल के लिए केन्द्र सरकार द्वारा दी जाने वाली सबसिडी 2014-15 के 76,285 करोड़ के आंकड़े से लुढ़ककर 2016-17 में मात्र 22,738 करोड़ रह गई। लेकिन न तो धर्मेन्द्र प्रधान और न ही वित्त मंत्री अरुण जेतली यह संज्ञान ले पाए कि कच्चे तेल की कीमतों के नीचे सरकने के दौर में पैट्रोल और डीजल पर टैक्स बढ़ाना किसी चक्रव्यूह में फंसने जैसा है। चक्रव्यूह से बाहर निकलना इसमें प्रवेश की तुलना में कहीं अधिक कठिन और महत्वपूर्ण होता है।
टैक्स दरें बढ़ाते समय भी प्रधान और जेतली को यह मगजपच्ची करनी चाहिए थी कि तेल कीमतें अत्यधिक बढ़ जाने और जनाक्रोश भड़कने की स्थिति में उनकी रणनीति क्या होगी। बाद में हुआ भी यही। कच्चे तेल की कीमतें फिर से बढ़ रही हैं जबकि केन्द्र और राज्य सरकारों दोनों के लिए टैक्स में कमी करना नाकों चने चबाने जैसा है क्योंकि यह कदम उठाने से राजस्व में कमी आएगी और बजट घाटा भी बढ़ जाएगा। पैट्रोल और डीजल की कीमतों को जी.एस.टी. के दायरे में लाना ही इस स्थिति में से निकलने का एकमात्र रास्ता है लेकिन यह दीर्घकालिक समाधान ही है।
जब कच्चे तेल की कीमतें नरम चल रही थीं तब सरकार को चाहिए था कि तेल कम्पनियों को यह सलाह देती कि वे पैट्रोलियम पदार्थों को अंतर्राष्ट्रीय पैट्रोलियम के साथ जोडऩे की बजाय लागत आधारित कीमतों का फार्मूला अपनाएं। अभी भी गिरे बेरों का कुछ नहीं बिगड़ा है। जिस चक्रव्यूह में हम फंसे हुए हैं उससे पैदा होने वाली आर्थिक समस्याओं से बचने का एक ही रास्ता है कि पैट्रोल और डीजल पर जी.एस.टी. भी लगाया जाए और उसके साथ ही इनकी कीमतें लागत आधारित फार्मूले से तय हों।