Edited By Updated: 05 Jan, 2017 09:38 AM
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के साथ गठबंधन के तहत भाजपा बेशक 117 में से 23 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ती है, लेकिन सरकार के गठन में इसकी भूमिका काफी अहम रहती है। इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
फगवाड़ाः पंजाब में शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के साथ गठबंधन के तहत भाजपा बेशक 117 में से 23 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ती है, लेकिन सरकार के गठन में इसकी भूमिका काफी अहम रहती है। इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
इसका कारण यह है कि भाजपा द्वारा लड़ी जाती शहरी क्षेत्र की 23 सीटों पर जीत या हार का सीधा नुक्सान या फायदा अभी तक कांग्रेस को होता आया है। 1997 से अब तक विधानसभा चुनावों में जब भाजपा अपनी अधिकतर सीटें हारी, तब कांग्रेस की सरकार बनी और जब आधे से अधिक सीटों पर जीत हुई तो कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा। वजह यह है कि चुनावों में शिअद और कांग्रेस की सीटों के आंकड़े का अंतर लगभग एक समान ही रहा, लेकिन भाजपा कोटे के विधानसभा क्षेत्रों के नतीजों ने बाजी पलटी। इस प्रकार कहा जाए कि पंजाब में सरकार बनाने की चाबी भाजपा के हाथ में है तो गलत नहीं होगा। इस बार आम आदमी पार्टी (आप) भी मैदान में है। इस बार अन्य विधानसभा क्षेत्रों की तरह ही भाजपा कोटे की सीटों पर भी मुकाबला कम से कम त्रिकोणीय होगा।
ऐतिहासिक तथ्य
1997 से अब तक हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा जब ज्यादा सीटें हारी तो कांग्रेस की सरकार बनी।
2002 में हवा गठबंधन के उलट थी और कांग्रेस 62 सीटें जीत कर सत्ता पर काबिज हो गई।
2007 विधानसभा चुनाव में हालात बदले और भाजपा 23 में से 19 सीटें जीतने में सफल रही।
2012 में आकलन थे कि कांग्रेस की सरकार बनेगी, लेकिन गठबंधन लगातार दूसरी बार सत्ता में आया। एंटी इंकम्बैंसी कांग्रेस और पी.पी.पी. के बीच बंटने से जहां साझे तौर पर गठबंधन को लाभ हुआ था।
भाजपा की हार-जीत और कांग्रेस का फायदा-नुक्सान
1 नवम्बर, 1966 को पंजाब के पुनर्गठन से लेकर 2012 से पहले तक हुए चुनावों में जनता ने किसी भी पार्टी या गठबंधन को लगातार दो बार राज करने का मौका नहीं दिया था। लोग हर टर्म की समाप्ति पर सत्ताधारी गठबंधन/पार्टी को विपक्ष में बिठा देते थे। 2012 में इतिहास बना और अकाली-भाजपा गठबंधन लगातार दूसरी बार सत्ता में आया। पहले मुख्य मुकाबला अकाली-भाजपा गठबंधन और कांग्रेस के बीच ही रहता था। 2002 व 2012 अपवाद रहे, जब क्रमश: पंथक मोर्चा व सांझा मोर्चा भी मैदान में थे। 2002 में पंथक मोर्चे के मैदान में होने का लाभ कांग्रेस को मिला और अकाली वोट शिअद व पंथक मोर्चा में बंटने की वजह से यह सरकार बनाने में कामयाब रही थी। वहीं, 2012 में सांझा मोर्चा के मैदान में होने का लाभ एंटी इंकम्बैंसी के फटने के चलते शिअद-भाजपा को मिला और गठबंधन सरकार रिपीट हो गई। इस सबके बीच भाजपा का प्रदर्शन काफी अहमियत वाला रहा। बात 1997 से शुरू करें तो उस साल अकाली-भाजपा गठबंधन की लहर के बीच कांग्रेस उड़ गई। भाजपा 23 में से 18 सीटें जीती और कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। शिअद को 75 सीटें मिलीं और भारी बहुमत से गठबंधन सरकार अस्तित्व में आई। उस साल कांग्रेस को केवल 14 सीटें मिलीं।
2007 में हालात बदले और भाजपा 23 में से 19 सीटें जीती
2002 में हवा गठबंधन के उलट थी और कांगे्रस 62 सीटें जीत कर सत्ता पर काबिज हो गई। यहां भाजपा का आंकड़ा काफी महत्वपूर्ण रहा। पार्टी 1997 के 18 सीटों के आंकड़े से सिमट कर 3 पर सीमित हो गई। इस प्रकार कांग्रेस को भाजपा के कोटे की 15 अतिरिक्त सीटों पर जीत हासिल हुई और यह सरकार बनाने के लिए जरूरी 59 सीटों के आंकड़े को पार कर गई। यदि ऐसा न होता और भाजपा का प्रदर्शन 1997 वाला ही रहता तो कांग्रेस का आंकड़ा 47 रह जाता। इस प्रकार कांगे्रस सत्ता के आंकड़े से 12 सीटें दूर रह जाती। वहीं, शिअद की 41 और भाजपा की 3 सीटों से मिलकर बना 44 का आंकड़ा, 15 और सीटों के साथ 59 पर पहुंच जाता तथा सरकार गठबंधन की बन जाती।
खैर 2007 में हालात बदले और भाजपा 23 में से 19 सीटें जीत गई। नतीजा सरकार गठबंधन की बनी। 2007 में शिअद को 49 सीटें मिली थीं। इस तरह उस साल सरकार भाजपा के सहारे से ही बनी। कांग्रेस का आंकड़ा 44 था।
यदि अपने 2002 के प्रदर्शन में सुधार करते हुए भाजपा 16 अतिरिक्त सीटें न जीतती तो निश्चित रूप से यह कांग्रेस की झोली में जातीं और 60 सीटों के आंकड़े के साथ सरकार रिपीट करने में कामयाब हो जाती। उस वक्त तो कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने कहा भी था कि वह शिअद से नहीं, बल्कि भाजपा
से हारे हैं।