चिट्ठी न कोई संदेश, न जाने कौन-सा देश जहां तुम चले गए...

Edited By Punjab Kesari,Updated: 26 Jul, 2017 10:31 AM

kargil war

चिट्ठी न कोई संदेश, न जाने कौन-सा देश जहां तुम चले गए... ये करुणामयी सिसकियां हैं कारगिल युद्ध में शहादत का जाम पीने वाले 13 जैक राइफल यूनिट के शहीद सिपाही हरीश पाल शर्मा की मां राज दुलारी की। उनकी आंखें प्रत्येक वर्ष विजय दिवस पर छलक आती हैं।

बमियाल/पठानकोट(शारदा, आदित्य,मुनीष): चिट्ठी न कोई संदेश, न जाने कौन-सा देश जहां तुम चले गए... ये करुणामयी सिसकियां हैं कारगिल युद्ध में शहादत का जाम पीने वाले 13 जैक राइफल यूनिट के शहीद सिपाही हरीश पाल शर्मा की मां राज दुलारी की। उनकी आंखें प्रत्येक वर्ष विजय दिवस पर छलक आती हैं।

जिले के सीमावर्ती गांव झड़ौली के शहीद लांसनायक की माता राज दुलारी व भाई सतीश शर्मा ने विजय दिवस की पूर्व संध्या पर अपना दर्द बयां करते हुए बताया कि कारगिल युद्ध छिडने पर 15 जून 1999 को अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ टाइगर हिल फतेह करते हुए हरीश पाल ने शहादत का जाम पिया था। शहीद के शौर्य व अदम्य साहस के लिए सरकार ने उसे मरणोपरान्त सैन्य मैडल देने की घोषणा की थी, परन्तु क्षोभ का विषय है कि कारगिल युद्ध के 18 वर्ष बीत जाने के बावजूद भी उनके लाडले की रूह अपनी बहादुरी का मैडल मिलने के इंतजार में है। 

शहीद की मां ने बताया कि उनकी मुश्किलों का दौर यहीं समाप्त नहीं हुआ, अपितु बेटे के शहीद होने के मात्र डेढ़ वर्ष बाद ही उनकी बहू उन्हें छोड़कर अपने मायके चली गई तथा दूसरी शादी कर ली। सरकार द्वारा अलॉट पैट्रोल पम्प भी वह चला रही है। बहू के जाने से उनका आंगन सूना हो गया। बेटे की शहादत के बाद उनका गम बांटने शहीद सैनिक परिवार सुरक्षा परिषद के सदस्य समय-समय पर उनके पास आते रहते हैं। 

उन्होंने बताया कि शहादत के 18 वर्ष बीत जाने के बाद भी गांव के सरकारी स्कूल का नाम उनके शहीद बेटे के नाम पर नहीं हो सका। ग्राम पंचायत द्वारा जो यादगारी गेट बनाया गया है, उसकी हालत भी जर्जर होने से उनके बेटे की शहादत की गरिमा को ठेस पहुंच रही है।शहीद के परिवार को ढाढस बंधाने पहुंचे शहीद सैनिक परिवार सुरक्षा परिषद के महासचिव कुंवर रविन्दर विक्की ने बताया कि शहीद के  अंतिम संस्कार पर राजनेताओं व प्रशासनिक अधिकारियों ने शहीद की याद में गांव में एक लाइब्रेरी, स्टेडियम व स्कूल का नाम शहीद के नाम पर रखने की घोषणा की थी, मगर अफसोस शहादत के 18 वर्ष गुजर जाने के बावजूद भी वायदे वफा न हो सके। अगर शहीद परिवार इसी तरह उपेक्षित होते रहे तो भविष्य में कोई भी मां अपने बच्चों को सेना में भेजने से पहले कई बार सोचेगी।

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