2019 में भी जाखड़ बनाम बाजवा की राजनीतिक लड़ाई का हो सकता है रिपले

Edited By Punjab Kesari,Updated: 17 Oct, 2017 11:44 PM

jakhar vs bajwas political battle may also be ripley in 2019

मात्र 6 महीने पहले कांग्रेस की लहर में भी विधानसभा चुनाव हारने वाले सुनील जाखड़ को आज लोग किस्मत का बादशाह कह रहे हैं। विधानसभा हारने के 6 महीने के भीतर जाखड़ ने रिकार्ड तोड़ लीड के साथ लोकसभा सीट जीत ली। मालवा से आकर माझा में सरदारी कायम करने वाले...

जालंधर(रविंदर शर्मा): मात्र 6 महीने पहले कांग्रेस की लहर में भी विधानसभा चुनाव हारने वाले सुनील जाखड़ को आज लोग किस्मत का बादशाह कह रहे हैं। विधानसभा हारने के 6 महीने के भीतर जाखड़ ने रिकार्ड तोड़ लीड के साथ लोकसभा सीट जीत ली।

मालवा से आकर माझा में सरदारी कायम करने वाले सुनील जाखड़ का खुलकर प्रताप सिंह बाजवा व उनकी लॉबी ने विरोध किया था, मगर जाखड़ का इसमें बाल भी बांका नहीं हो सका। यह लोकसभा चुनाव जाखड़ बनाम बाजवा लॉबी के बीच राजनीतिक द्वंद के तौर पर लड़ा गया। 2019 का लोकसभा चुनाव भी जाखड़ बनाम बाजवा लड़ाई का रिपले हो सकता है।

राजनीति में किसकी किस्मत में क्या लिखा है, कुछ नहीं कहा जा सकता। 2014 में गुरदासपुर सीट से बड़ी हार के बाद प्रताप सिंह बाजवा को राज्यसभा सीट मिल गई तो मात्र 6 महीने पहले विधानसभा चुनाव हारने वाले सुनील जाखड़ आज गुरदासपुर से लोकसभा सांसद हैं। बाजवा लॉबी ने जाखड़ का साथ न देने का पूरा मन बनाया हुआ था। मगर राजनीति में पर्सनल द्वेष भावना नहीं रखी जा सकती। इससे भविष्य की राजनीति में नुक्सान हो सकता है। कुछ ऐसा ही बाजवा के साथ भी हुआ, हाईकमान की झिड़की के बाद मजबूरन बाजवा को जाखड़ के साथ चलना पड़ा। थोड़ा बैकग्राऊंड 2014 में जाते हैं। तब प्रताब सिंह बाजवा जहां प्रदेश कांग्रेस प्रधान थे तो सुनील जाखड़ विधानसभा में विपक्ष के नेता। दोनों नेता प्रदेश कांग्रेस में बेहद मजबूत माने जाते थे और कै. अमरेंद्र सिंह तब पार्टी के अंदर राजनीतिक हशिए पर चल रहे थे।

पार्टी हाईकमान ने 2014 लोकसभा चुनाव में कै. अमरेंद्र सिंह को अमृतसर से उतारा तो बाजवा को उनके गृह जिले गुरदासपुर व जाखड़ को उनके गृह जिले फिरोजपुर से चुनावी मैदान में उतारा। दूसरे जिले में जाकर कै. अमरेंद्र सिंह ने तो भाजपा के बड़े नेता अरुण जेतली को पटखनी दे दी थी। मगर प्रदेश कांग्रेस में टॉप पर चल रहे बाजवा व जाखड़ दोनों ही अपने गृह जिलों से चुनाव हार गए थे। चुनावों के बाद नवंबर 2015 में दोनों ने अपने पद गंवा दिए। कैप्टन फिर मजबूत होकर उभरे तो बाजवा को प्रधान पद से हटा दिया गया और बाजवा बनाम कैप्टन लड़ाई में कैप्टन का साथ देने पर जाखड़ को विपक्ष के नेता पद से हाथ धोना पड़ा था। 

फरवरी 2016 में जाखड़ को फिर झटका लगा था, जब दो बार लोकसभा के स्पीकर रहे और मध्यप्रदेश के राज्यपाल रहे उनके पिता बलराम जाखड़ का निधन हो गया। अगले ही महीने पंजाब में 2 राज्यसभा सीट की खाली हुईं। एक सीट पर बाजवा को नोमीनेट किया गया और दूसरी सीट पर संभावना थी कि जाखड़ को उतारा जाएगा। मगर ऐसा न हो सका और दूसरा नाम दलित नेता शमशेर सिंह दूलो का प्रपोज कर दिया तब जाखड़ ने इस नोमिनेशन पर पार्टी हाईकमान का खुलकर विरोध भी किया था। 

हैरानी की बात देखिए कि इसके बाद भी जाखड़ की किस्मत नहीं जागी। जब दस साल बाद प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो जाखड़ अबोहर सीट से चुनाव हार गए। ऐसे में लगने लगा कि उनके राजनीतिक करियर को ग्रहण लग सकता है। मगर अचानक उनकी किस्मत ने फिर पलटी मारी, क्योंकि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जाट सिख चेहरा था तो पार्टी के अंदर एक हिंदू नेता को प्रदेश कांग्रेस प्रधान की कमान सौंपने की आवाज उठने लगी। इसमें जाखड़ का नाम चला और किस्मत के धनी जाखड़ लगातार चुनाव हारने के बाद भी प्रदेश कांग्रेस प्रधान बन गए। इसके बाद गुरदासपुर उपचुनाव में बड़ी जीत दर्ज कर अब उनकी केंद्र की राजनीति में अपने कदम रखने की मंशा पूरी हो गई।

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