पंजाब में होला मोहल्ला की धूम,गुरु रंग में रंगे पंजाबी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 28 Feb, 2018 02:04 PM

hola mohalla

खालसाई शानो-शौकत का प्रतीक राष्ट्रीय पर्व होला मोहल्ला का प्रथम चरण श्री कीरतपुर साहिब में हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हो गया

चंडीगढ़ः खालसाई शानो-शौकत का प्रतीक राष्ट्रीय पर्व होला मोहल्ला का प्रथम चरण श्री कीरतपुर साहिब में हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हो गया जबकि दूसरे चरण का आगाज श्री आनंदपुर साहिब में बुधवार को किया जाएगा। होला महल्ला पंजाब के श्री आनंदपुर साहिब में धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन श्रद्धालु गुरुओं के रंग में रंगे नजर आते हैं। 

 

क्या है होला मोहल्ला
भारत के प्रमुख त्योहार होली को गुरु गोविंद सिंह जी ने नए ढंग से मनाने की परंपरा आरंभ की थी। उन्होंने इस त्योहार को परमात्मा के प्रेम रंग में सराबोर कर अधिक आनंददायी स्वरूप दिया। श्री गुरुग्रंथ साहब में होली का उल्लेख करते हुए प्रभु के संग रंग खेलने की कल्पना की गई है। गुरुवाणी के अनुसार, परमात्मा के अनंत गुणों का गायन करते हुए प्रफुल्लता उत्पन्न होती है और मन महा आनंद से भर उठता है। जब मनुष्य होली को संतों की सेवा करते हुए मनाता है तो लाल रंग अधिक गहरा हो जाता है। गुरु गोविंद सिंह ने होली को आध्यात्मिकता के रंग में रंग दिया। उन्होंने इसे होला महल्ला का नाम दिया। 

क्‍या है अर्थ 

होला शब्द होली की सकारात्मकता का प्रतीक था और मोहल्ला का अर्थ उसे प्राप्त करने का पराक्रम। रंगों के त्योहार के आनंद को मुखर करने के लिए गुरु जी ने इसमें व्याप्त हो गई कई बुराइयों जैसे कीचड़ फेंकने, पानी डालने आदि का निषेध किया। होली के त्योहार का आयोजन इस तरह से किया जाने लगा कि पारस्परिक बंधुत्व और प्रेम की भावना दृढ़ हो। 


होला महल्ला का आरंभ प्रात: विशेष दीवान में गुरुवाणी के गायन से होता है। इसके पश्चात कवि दरबार होता, जिसमें चुने हुए कवि अपनी कविताएं सुनाते। दोपहर बाद शारीरिक अभ्यास, खेल और पराक्रम के आयोजन होते। गुलाब के फूलों, गुलाब से बने रंगों की होली खेली जाती। दो दिनों तक चलने वाले इस उत्सव के दूसरे दिन छद्म युद्ध आयोजित किया जाता, जिसमें सिखों को दो दलों में बांट दिया जाता था। इसमें बिना किसी को शारीरिक क्षति पहुंचाए युद्ध के जौहर दिखाए जाते। इसके लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खास तौर पर आनंदपुर साहिब में किला बनवाया था। किले में बैठकर वे स्वयं सिख दलों के युद्ध को देखते थे। योद्धाओं को उचित पुरस्कार दिए जाते थे। अंत में कड़ा प्रसाद वितरित होता। इस तरह होली का यह पुरातन त्योहार स्वस्थ प्रेरणाओं का उत्सव बन गया था।


 
 

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