Edited By Updated: 27 Mar, 2017 12:05 PM
कोई समय था कि जब हमारे देश के किसान को अन्नदाता कह कर सम्मान से बुलाया जाता था तथा किसान की फसल को पहल के आधार पर खरीदा जाता था...................
नत्थूवाला गर्बी (राजवीर): कोई समय था कि जब हमारे देश के किसान को अन्नदाता कह कर सम्मान से बुलाया जाता था तथा किसान की फसल को पहल के आधार पर खरीदा जाता था, उस समय किसानों की आर्थिक हालत भी अच्छी थी तथा किसान भाई भी अपने परिवार के साथ रोटी खाता था। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा सरकारों में भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ता गया तो किसानों की आर्थिक हालत पतली होती गई तथा हालात यह बन गए कि किसान कर्जे में बुरी तरह फंस कर आत्महत्याओं के रास्ते चल पड़े। सरकारों की ओर से लगातार प्रचार किया जा रहा है कि किसान गेहूं-धान की बिजाई में से बाहर निकलें, तब ही उनकी आर्थिक हालत सुधरेगी जिसके चलते किसान भाइयों ने आलुओं की फसल की तरफ कूच किया तथा इस बार आलुओं की भरपूर पैदावार भी हुई, लेकिन हालत यह है कि किसान भाइयों के आलुओं को कौडिय़ों के भाव खरीदा जा रहा है। कौन है इसके लिए जिम्मेदार? इस संबंधी ‘पंजाब केसरी’ ने गांव भलूर के उन किसानों के साथ बातचीत की तथा आलुओं पर प्रति एकड़ होने वाले खर्च बारे विस्तार से जानकारी हासिल की।
दोहरी लेबर की मार पड़ रही है
गांव भलूर के किसानों ने बताया कि आलू बीजने की लेबर, फिर खुदाई समय आलू चुगने की लेबर, फिर खेत में ढेर करने की लेबर, अब जब आलू खराब हो रहे हैं तो ढेर से दोबारा आलुओं के छंटनी करने की लेबर तथा खराब आलुओं को उठा कर दूर फैंकने की लेबर आदि कार्यों पर हो रहे खर्चों ने तो किसानों को किसी काम का नहीं छोड़ा। किसानों की हालत तो आज सांप के मुंह में कोहड़ किरली, खाए तो मरेगा, छोड़े तो कौड़ी जैसी बनी हुई है। इस अवसर पर एकत्रित गांववासियों तथा भारतीय किसान यूनियन इकाई भलूर के मैंबरों ने मांग की कि यदि सरकारें सही अर्थों में किसानों का जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिए संजीदा हैं तो स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को तुरंत लागू करें तथा किसी भी फसल का मूल्य उस पर लागत कीमत से दोगुना या तिगुना तय हो तथा किसान को व्यापारियों के चंगुल से आजाद करवाया जाए। किसानों ने मांग की है कि उनको 400 रुपए प्रति बोरी कीमत दी जाए।