Edited By Punjab Kesari,Updated: 14 Nov, 2017 11:13 AM
बाबू जी हमें नहीं पता बाल दिवस क्या होता है। हमें सिर्फ यह पता है कि शहर की गंदगी में अपने परिवार की आजीविका ढूंढनी है और पेट भरना है या किसी होटल, ढाबे, चाय की दुकान या फिर किसी के घर में जूठे बर्तन धोने हैं। यह दास्तान है शहर में मौजूद गरीब बाल...
जलालाबाद(गुलशन): बाबू जी हमें नहीं पता बाल दिवस क्या होता है। हमें सिर्फ यह पता है कि शहर की गंदगी में अपने परिवार की आजीविका ढूंढनी है और पेट भरना है या किसी होटल, ढाबे, चाय की दुकान या फिर किसी के घर में जूठे बर्तन धोने हैं। यह दास्तान है शहर में मौजूद गरीब बाल मजदूरों की। देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पं. जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिन जोकि पूरे देश में बाल दिवस के तौर पर मनाया जाता है परंतु इन बच्चों को बाल दिवस के इतिहास के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि बाबू जी बाल दिवस क्या होता है इसके बारे में तो उन्हें पता नहीं। उन्हें तो बस पेट भरने के लिए रोटी चाहिए।
बाल मजदूरों का कहना है कि जब वे बच्चों को स्कूल ड्रैस में तैयार होकर स्कूल जाते हुए देखते हैं तो उनके मन में भी कुछ ऐसी ही चाहत उठती है कि वे भी स्कूल जाएं लेकिन उनके भाग्य में सिर्फ मजदूरी कर पैसे कमाना व अपना और अपने परिवार का पेट पालना लिखा है। शहर में गलियों व बाजारों में ऐसे बच्चे जोकि अति निर्धन हैं पूरा दिन गंदगी के ढेर में कागज, प्लास्टिक, लोहा, कांच की बोतलें, गत्ता सहित अन्य सामान एकत्र कर अपना बचपन बिता रहे हैं, वहीं वास्तविकता के विपरीत-बाल मजदूरी रोकने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं लेकिन हकीकत कुछ और ही है। बेशक इस बार भी बाल दिवस के मौके पर बच्चों को देश का भविष्य व कर्णधार कहकर कई बच्चों को सम्मानित भी किया जाएगा लेकिन गरीबी की मार झेल रहे इन बच्चों की तरफ शायद ही किसी की नजर पड़े। ऐसी स्थिति में बचपन सुधार के दावे महज दावे बने हुए हैं।
बिना किसी डर के बाल मजदूरी जारी
शहर में सरकार, प्रशासन व श्रम विभाग की अनदेखी के चलते बाल श्रम रोको सप्ताह के बीच भी शहर में बाल मजदूरी बिना किसी डर व बिना रोक-टोक के जारी है। शिक्षा ग्रहण करने की आयु में हाथों में किताबें व पैन थामने की बजाय जूठे बर्तन बाल मजदूरों की की जिंदगी का हिस्सा बन गया है। शहर में चाय की दुकानों, रेहडिय़ों, हलवाई, ढाबों सहित कई अन्य दुकानों व घरों में कम वेतन पर टाइम से अधिक समय तक काम करते हुए बच्चों को आम ही देखा जा सकता है। बाल मजदूरों के शोषण की दास्तान पौ फटते ही शुरू हो जाती है जोकि देर रात तक जारी रहती है।
बचपन सुधारने की योजनाओं से कोई लेना-देना नहीं
बेशक सरकार व प्रशासन बच्चों के उत्थान के लिए शिक्षा ग्रहण करवाने जैसी कई कल्याणकारी योजनाएं लागू कर रही है परंतु गरीब परिवारों से संबंधित इन बच्चों को कचरे के ढेर में बीत रहे बचपन से भी कुछ लेना-देना नहीं है। कई घंटे गंदगी में हाथ मारने के बाद चंद रुपए मिलते हैं जिनसे ये रोटी कमाकर अपना दो वक्त का गुजारा कर रहे हैं।