Edited By Updated: 28 Sep, 2016 01:37 PM
शहीद भगत सिंह के परिवार को बागियों का परिवार कहा जाता था। यह खुलासा किया उनके भतीजे किरणजीत सिंह संधू ने।
जालंधरः शहीद भगत सिंह के परिवार को बागियों का परिवार कहा जाता था। यह खुलासा किया उनके भतीजे किरणजीत सिंह संधू ने।
किरणजीत सिंह संधू कहते हैं कि स्वार्थी राजनीतिज्ञों की वजह से देश में आज भी शहीदों के सपने साकार नहीं हुए हैं। आज भी देश जाति, धर्म, क्षेत्रवाद आदि में बंटा हुआ है। कुछ स्वार्थी नेता सत्ता के लालच में देश के प्रति फर्ज भूल रहे हैं।
किरणजीत सिंह संधू कहते हैं कि बेशक कुछ स्वार्थी नेताओं ने शहीदों का नामोनिशां मिटाने की कोशिश की हो, लेकिन शहीद लोगों के दिलों में आज भी राज करते हैं। बता दें कि शहीद भगत सिंह की जन्म तारीख को लेकर लोगों में विरोधाभास है। उनके परिजन 28 सितंबर को ही उनकी जन्म तारीख मानते हैं। पूरे देश में महान क्रांतिकारी भगत सिंह की बर्थ एनिवर्सरी अाज मनाई जा रही है।
शहीद भगत सिंह मौत को 'महबूबा' और आजादी को 'दुल्हन' बताते थे। जब उनकी शादी की बात चली तो उन्होंने कहा था कि गुलाम भारत में अगर कोई उनकी दुल्हन बनेगी, तो वो उनकी शहादत होगी। वहीं, फांसी पर झूलने से पहले जब उनसे खाने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने रसगुल्ले की डिमांड की।
शहीद भगत सिंह के छोटे भाई स्व. कुलतार सिंह के बेटे किरणजीत सिंह सिंधू के मुताबिक, 'चाचा भगत की शहादत के समय मेरे पिता की उम्र बमुश्किल 10-12 साल थी।'
इस दौरान जब वे जेल में बंद भगत सिंह से मिलने गए तो उनकी हालत देख उनके पिता की आंखों में आंसू आ गए। तब भगत सिंह ने उनसे कहा कि वे आंसू व्यर्थ बहाने के बजाए बचाकर रखें, क्योंकि उनके बलिदान के बाद क्रांति की मशाल जलाए रखने की जिम्मेदारी अगली पीढ़ी की होगी।
इसी से प्रेरित कुलतार सिंह आजादी के आंदोलन में जेल गए और 6 साल की सजा काटी। सहारनपुर से शहीद भगत सिंह का बड़ा लगाव था। वह यहां पर अक्सर आते रहते थे। जब अंग्रेजी फौज उनके पीछे पड़ गई, तब वह पंजाब से सहारनपुर चले आए।
यहां एक मंदिर के गुंबद में छिपकर अंग्रेज सैनिकों को धोखा देकर अपनी जान बचाई।
भगत सिंह के वकील प्राणनाथ मेहता के संस्मरणों में दर्ज है कि जेल में बंद भगत सिंह ने फांसी लगने से पहले, दोपहर के वक्त रसगुल्ले की फरमाइश की। इसके बाद रसगुल्ले का इंतजाम हुआ और भगत सिंह ने उन्हें प्रसन्नता से खाया।
यही उनका अंतिम भोजन था। इसके बाद लेनिन की जीवनी पढ़ने में भगत लीन हो गए। कुछ देर बाद कोठरी का दरवाजा खुला। अधिकारियों ने कहा- सरदार जी, फांसी लगाने का हुक्म आ गया है! जवाब आया-जरा ठहरो, एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है। फिर जो प्रसंग वे पढ़ रहे थे, उसे समाप्त करके पुस्तक रख दी और बोले-चलो। भगत के साथ, सुखदेव और राजगुरु भी कोठरियों से बाहर आए। तीनों अंतिम बार गले मिले। उन्होंने गीत गाया- दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत...!
उसके बाद तीनों ने नारा लगाया -इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुदार्बाद' और फांसी के तख्ते पर झूल गए। देश उनकी शहादत को अाज भी सलाम करता है।