Edited By Punjab Kesari,Updated: 05 Feb, 2018 09:44 AM
भले ही सरकार की नजर में परिवार के पालन-पोषण के लिए मासूम बच्चों का भीख मांगना गैर-कानूनी हो लेकिन गांव एवं शहरों में ऐसे मासूम बच्चों की कमी नहीं है जिनका बचपन इसी में बीत रहा है। हैरानी की बात तो ये है कि परिजनों को न तो कानून का भय है और न ही अपने...
होशियारपुर(अमरेन्द्र): भले ही सरकार की नजर में परिवार के पालन-पोषण के लिए मासूम बच्चों का भीख मांगना गैर-कानूनी हो लेकिन गांव एवं शहरों में ऐसे मासूम बच्चों की कमी नहीं है जिनका बचपन इसी में बीत रहा है। हैरानी की बात तो ये है कि परिजनों को न तो कानून का भय है और न ही अपने बच्चों के भविष्य की चिंता।
एक ओर जहां शिक्षा के अधिकार के तहत प्रत्येक बच्चे को शिक्षा की मुख्य धारा से जोडने के लिए जिला प्रशासन स्कूल चलें अभियान चला रहा है तो वहीं दूसरी तरफ होशियारपुर शहर के शिमला पहाड़ी चौक, बहादुरपुर चौक, बस स्टैंड, ग्रीन व्यू पार्क सहित तमाम चौक चौराहों पर ऐसे सैंकड़ों बच्चे नजर आते हैं जो भीख मांगकर अपने परिवार का पालन-पोषण करने की बात कहते हैं। कुछ बच्चे तो इसके लिए बच्चों के खेलने वाले गुब्बारे तक बेचते दिख रहे हैं।
कानून को दिखा रहे सरेआम ठेंगा
सर्दी हो या गर्मी, सड़कों पर भीख मांगते, कूड़े के ढेर से भोजन की तलाश करते, खतरनाक स्टंट दिखाते मासूमों को यह तक नहीं पता कि उन्हें सरकार ने क्या अधिकार दिए हैं। ऐसे में जिला प्रशासन के तमाम दावे धरे के धरे रह जाते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि लोग इस बारे में बात तो करते हैं कि ये बालक भीख क्यों मांग रहा है, आखिर इसकी क्या मजबूरी है, लेकिन अक्सर देखने में आता है कि जब कोई बालक किसी से भीख मांगता है।
अक्सर उसे लोग बुरा-भला कहते हैं। वहीं बाल श्रम कानून के तहत 18 वर्ष से कम आयु वाले बच्चें से कोई काम नहीं करवा सकता लेकिन इसके बाद भी दुकानों पर मासूम काम करते नजर आते हैं। सबसे अधिक चाय, होटलों एवं किरयाना की दुकानों, मैकेनिकों एवं ठेकेदारों के यहां ये बालक काम करने को मजबूर हैं। इसके बाद भी न तो प्रशासन और न ही बाल श्रम विभाग के अधिकारी इस मामले में कोई ठोस कदम उठा रहे हैं।
कहां हैं मासूम बच्चों के जीवन की खुशियां
हैरानी वाली बात है कि जिन मासूम बच्चों के हाथों में किताबें होनी चाहिएं इनमें ज्यादातर मामलों में बच्चों के माता-पिता व परिजन ही उनके बचपन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। शहर के चौक चौराहों पर रात के समय भी बच्चे गुब्बारे बेचते व भीख मांगते नजर आते हैं वहीं उनके परिजन झुग्गी-झोंपड़ी में आराम करते नजर आते हैं। पूछने पर कई बच्चे उलटे प्रश्न पूछते हैं कि कहां हैं हमारे हिस्से की खुशियां? हमें भीख नहीं, रोटी चाहिए फिर क्यों हमें कूड़े में से रोटी तलाशनी पड़ रही है? क्या हम बच्चे नहीं। हमारा बचपन बचपन नहीं?
बच्चों से भीख मंगवाना मजबूरी या पेशा?
हैरानी वाली बात यह है कि मासूम बच्चों से भीख मंगवाना अब मजबूरी नहीं रहा बल्कि कुछ परिवारों ने इसे पेशे के तौर पर अपना लिया है। हालांकि ये परिवार ज्यादातर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान के साथ संबंधित हैं जो शहर के बाहरी हिस्से में झुग्गी-झोंपड़ी में रहते हैं। यहीं से बच्चों को पेशे के तौर पर भीख मांगने, गुब्बारे व खिलौने बेचने के लिए भेजा जाता है। पूछने पर बच्चों के परिजन साफ-साफ कहते हैं कि पापी पेट को पालने के लिए हमें यह सब कुछ करने को मजबूर होना पड़ता है।