’71 के संघर्ष की चर्चा करने से चूक गईं हसीना

Edited By Updated: 18 Apr, 2017 11:50 PM

hasina missed due to discussions of 71

शेख हसीना की भारत यात्रा कई मायनों में सफल रही। यह ...

शेख हसीना की भारत यात्रा कई मायनों में सफल रही। यह सफल रही क्योंकि उन्होंने 22 समझौते करने में सफलता प्राप्त कर ली। इनमें से एक परमाणु सुविधाओं से संबंधित है लेकिन उनकी यात्रा को लोगों का प्रतिसाद नहीं मिला।

 

इसके पीछे जो एक वजह मेरे दिमाग में आती है वह यह कि यात्रा का फोकस उन पर था, बंगलादेश के मुक्ति संग्राम पर नहीं। शेख मुजीबुर रहमान का नाम भारत में हर किसी की जुबान पर है क्योंकि वह लोगों को उस संघर्ष की याद दिलाते हैं जो अंग्रेजों के खिलाफ उन्होंने तीस और चालीस के दशक में किए थे और अंग्रेजों को भारत छोडऩे पर मजबूर किया था।

 

सच है कि बंगलादेश हाई कमिशन ने हसीना के सम्मान में आमंत्रित अतिथियों के लिए बंगलादेश मुक्ति संग्राम पर एक कम्प्यूटर प्रस्तुति की थी जिसके फोकस शेख थे। यह सिर्फ सतही मामला लगा लेकिन शेख हसीना ने 1971 के संघर्ष के बारे में बताने का अच्छा मौका गंवा दिया जिसमें देश के बुद्धिजीवी पकड़ लिए गए थे और गोलियों से भून दिए गए थे।

 

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने शेख की जान बचाने का श्रेय लिया था। जनरल याहिया खान उस समय पाकिस्तानी फौज के कमांडर थे और वह शेख को मारने वाले ही थे। जनरल उन्हें खत्म कर देना चाहते थे लेकिन भुट्टो और मोहम्मद अयूब खान,जो उस समय मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर थेे, ने उन्हें रोकलिया।

 

जब पाकिस्तानी फौज का नेतृत्व कर रहे जनरल ए.के. नियाजी ने 90 हजार सैनिकों के साथ सेना की मदद करने वाली नौजवानों की मुक्ति वाहिनी के संयुक्त कमान के सामने आत्मसमर्पण किया तो जनरल याहिया खान ने शेख को खत्म करने का आदेश दे दिया लेकिन भुट्टो, जिन्होंने शेख को बचाने का श्रेय लिया, वास्तव में मुजीब के रक्षक नहीं हैं।

 

अयूब खान, जिनका बाद में मैंने इंटरव्यू किया, ने मुझे बताया कि पूर्वी पाकिस्तान में रहने वालों पर उन्होंने कभी भी विश्वास नहीं किया क्योंकि वे पंछियों के झुंड थे लेकिन उन्होंने ढाका में संसद भवन बनाया था और मुजीब को बचाने का श्रेय उन्हें जाता है क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि आज न कल वे लोग आजाद हो जाएंगे।आज भी, पाकिस्तान बंगलादेश के जन्म के लिए भारत को दोष देता है। इसमें कोई शक नहीं है कि भारतीय सेना  की मदद के बगैर बंगलादेश आजाद नहीं होता। लेकिन पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाले रावलपिंडी के शासकों के इतने खिलाफ थे कि एक न एक दिन वे आजाद हो ही जाते।

 

मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान समर्थकों का एक समूह, जो बहुत छोटा था, को छोड़ कर करीब-करीब पूर्ण विरोध था। एक भी बंगलादेशी इसके पक्ष में नहीं था कि पाकिस्तान उन पर शासन करे। इसकी सेना ने लोगों पर इतने जुल्म किए थे कि आज भी वे उस समय की याद करते हैं जब उन्होंने पाकिस्तान से आजादी हासिल की।

 

उन दिनों मुझे रावलपिंडी जाने का मौका मिला। दीवारें इस नारे से रंगी थीं-भारत को कुचल दो। उनके लिए वह लड़ाई नई दिल्ली के खिलाफ  थी। बंगलादेश के संघर्ष को इसी का एक नतीजा माना जाता था। पाकिस्तानी सेना ने भारतीय फौज के साथ लड़ाई की क्योंकि उन्हें विश्वास था वे मुक्ति वाहिनी और उन बाकी संगठनों का हिस्सा हैं जो आजादी चाहते हैं।

 

यह दुख की बात है कि शेख हसीना निरंकुश हो गई हैं और कोई भी विरोध सहन नहीं करती हैं। सत्ता में बने रहने के लिए वह चुनाव में भी उलट-फेर करती हैं। उनकी विरोधी खालिदा जिया खुलेआम कहती हैं कि अगर भारत बंगलादेश की प्रधानमंत्री के पीछे नहीं होता तो हसीना को सत्ता से कब का बाहर कर दिया गया होता। मुझे ढाका की अपनी एक यात्रा के दौरान राष्ट्रीय दिवस मनाने के लिए वहां आयोजित चाय पार्टी का स्मरण आता है जिसमें सभी राजनीतिक दलों के नेता मौजूद थे। विपक्षी नेता मौदूद अहमद चाय पार्टी के बाहर आते ही गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें जेल में लंबा समय बिताना पड़ा।

 

जाहिर है, विपक्षी नेता खालिदा जिया की भारत के हाथों बिक जाने वाली टिप्पणी सत्ता में बने रहने के बंगलादेश के प्रधानमंत्री के सपनों की ओर इशारा करती है। बंगलादेश नैशनल पार्टी ने प्रतिरक्षा सौदों पर हस्ताक्षर को ‘‘लोगों के साथ बेहद धोखा’’ बताया है। उसे भय है कि इससे बंगलादेश का सुरक्षातंत्र नई दिल्ली के सामने उघड़ जाएगा। जाहिर तौर पर यह समझौता उसके बाद हुआ है जब चीन ने प्लेट में सजा कर बंगलादेश के सामने ऑफर पेश किए हैं।

 

तीस्ता जल समझौता पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के विरोध के कारण नहीं हो पाया। मुख्यमंत्री को लगता है कि तीस्ता नदी में इतना कम पानी है कि इसे पानी के संकट से जूझ रहे उत्तर बंगाल की कीमत पर बंगलादेश को नहीं दिया जा सकता। तीस्ता पश्चिम बंगाल और बंगलादेश से होकर बहती है, इसलिए अगर समझौते पर हस्ताक्षर होता है तो पानी में बराबर की हिस्सेदारी की अनुमति मिल जाएगी लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने बंगलादेश की प्रधानमंत्री को समस्या के जल्द समाधान का आश्वासन दिया है। ‘‘हम इसे हल कर सकते हैं, हम इसे हल करेंगे’’, मोदी के शब्द थे।

 

नई दिल्ली को उदार होना चाहिए और बंगलादेश की मांगों को जगह देनी चाहिए। सिर्फ  यही एक दोस्ताना पड़ोसी है। हमने पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका को पहले ही दूर कर दिया है, और चीन इसका फायदा उठा रहा है और उन देशों के नजदीक आने की कोशिश कर रहा है जिसमें लंबे समय के लिए सस्ते कर्ज भी शामिल हैं। चीन ने उन्हें पहले ही सैन्य मदद दे रखी है और भारत को दुश्मनी के लिए चुन रखा है।


दलाई लामा के हाल के अरुणाचल प्रदेश दौरे ने चीन को और भी गुस्सा कर दिया है। उसने कहा कि दलाई लामा के तवांग दौरे की कीमत भारत को अदा करनी पड़ेगी। दलाईलामा ने कहा है कि तिब्बत चीन के मातहत स्वशासन चाहता है। उन्होंने यह भी कहा है कि अरुणाचल प्रदेश का उनका दौरा पूरी तरह धार्मिक था और इसका राजनीति से कोई ताल्लुक नहीं था।

 

शेख हसीना को विरोध बर्दाश्त करना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में मतभेद का अधिकार शामिल होता है। वर्तमान में काम करने के उनके तानाशाही वाले तरीके ने शासन की सूरत ही बिगाड़ दी है। इसमें सभी लोगों को शामिल करना चाहिए और उन्हें अपनी बात रखने की अनुमति देनी चाहिए। दुर्भाग्य से, बंगलादेश में एक ऐसा शासन है जिसमें लोग घुटन महसूस करते हैं।

 

नई दिल्ली ने सब कुछ हसीना की झोली में रख दिया है और जब उसकी आलोचना इसके लिए की जाती है कि वह बंगलादेश की प्रधानमंत्री पर लोकतंत्र को वास्तविक अर्थों में बहाल रखने के लिए ठीक से दबाव नहीं डालती है तो वह मुंह घुमा लेती है। बेशक प्रधानमंत्री मोदी का शासन लोकतांत्रिक है, लेकिन एक से अधिक अर्थों में यह एक व्यक्ति का शो है। बंगलादेश के लोगों को उस तरह नहीं दबना चाहिए जिस तरह भारत के लोग मोदी के सामने हो गए हैं। 
 

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